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Showing posts from June, 2020

बचाती है विध्वंस से

बचाती है विध्वंस से  सृजनात्मकता सबको रचती है एक नई दुनिया   जहां फ़र्क की भट्ठी में  झोंकने से बचाया जा सकता है  अमीरी और ग़रीबी को    ऊपर उठ जाता है  इसको आत्मसात कर आदमी  चावल खाकर मुट्ठी भर  दरिद्रता दूर कर देता है      सुदामा का  धर्म निभाता है मित्रता का शक्ति होती है सृजनशीलता में  सदैव बचाती है विध्वंस से हमें  कभी ढकेलती नहीं है    रौरव नरक में    जीवन तलाशता है   निर्माण में ही नहीं मन में भाव आता है  घोंसले को नष्ट करने का  मुक्त हो जाता है सारे बंधनों से  जल जाती है दर्प की रस्सियां  उस सृजनात्मकता की आंच में    भूमिका निभाता है     एक कुशल शिल्पी की      गढ़ने लगता है   अनगढ़ पत्थरों को   प्राण फूंक देता है उसमें    एक नव जीवन का     कोमल स्पर्श से  उद्धार हो जाता है अहिल्या का  अर्थ मिल जाता है जीवन का  अंतर समझने लगती है       वह देवी...

आत्महत्या

व्यक्ति अंधा हो जाता है आकाश को छूने की होड़ में प्रतिस्पर्धी हो जाता है भेद नहीं कर पाता है अक्सर ऐसा होता है सही ग़लत के निर्णय में ग्लैमर की दुनिया की चकाचौंध में स्वप्न बिखर जाते हैं  कई अभिनेताओं के कई के टूट जाते हैं आत्मीयता नहीं होती है क्योंकि वहां कोई अपना नहीं होता है कोई हमदर्द नहीं होता किसी का कोई वहां       कामयाबी का स्वर सुनने के लिए गलाकाट प्रतियोगिता में   लाश पर चढ़कर किसी के  प्रतिभाग करना वहां की संस्कृति है कोई मर रहा है वहां या जी रहा है सुखी है या दुखी है किसी में नहीं है यह जानने की फ़ुर्सत अवसादग्रस्तता की तरफ़ ले जाती है यह स्थिति और अवसादग्रस्तता  "आत्महत्या"  का एकांतिक पथ दिखाती है   संपूर्णानंद मिश्र प्रयागराज फूलपुर 7458994874

कली आज ढल गई

वह सुंदर कली थी   भ्रमर मंडराते थे   उस पर कभी रसपान करते हुए  हजारों वादे निभाने की   कसम खाते थे    उत्कंठित थे  एक झलक पाने की   अवगुंठन हटाने के लिए   ज़िंदगी भी दांव पर लगाते थे       मौत भी हुस्न के  बाज़ार में सस्ती बिक जाती थी     इस प्रतिस्पर्धा में      आम आदमी तो  वृंत-स्पर्श में ही सुख पाते थे    परिपक्व कली तक  सभी मधुकर नहीं पहुंच पाते थे       फिर भी उसने  कभी निराश नहीं किया अपने चाहने वालों को    दोनों हाथ अर्क  अपने प्रेमियों को लुटाती थी    आज हुस्न  उसकाढल गया   मौत भी ज़िंदगी से    फिर महंगी हो गई  ‌   डालियों को छोड़कर       कुछ भौंरे तोताचश्म हो गए      इश्क की दरिया में एक भ्रमर       अब भी अपना        नेह लुटा रहा था          सबसे बड़ा प्रेमी अपने को   ...

What is your TRUE power?

I have been thinking about this recently. And I thought I can share it with you... What is your TRUE power? What is YOUR true power as an individual human being? Is it money? Is it connections? Is it knowledge? Wisdom? Intelligence? All of the above are potential energies. A lot of people have them. Not everyone has a lot, but everyone has something. You, with your life experience, will definitely have some money saved up, some knowledge and experience gained through the years and some intelligence. But what's the most powerful thing of this all? NONE of the above... None of these can be of any use if we do not use it. In my life experience, I have learned a thing. And I learned that true power is always one thing: The power of Getting Started. Initiative. Starting something is the most powerful thing. Many people are more skilled than successful people. Many people are having more resources than many successful people. But the one thing that differentiates successful people from t...

अब नहीं चला जा रहा है

   जिस पड़ाव पर हूं         जिस हाल में हूं     जिस अवस्था की छत पर        मैं खड़ा होकर देख रहा हूं       यहां से बाहर की दुनिया       देखने पर झांई आती है अतीत के संबंधों की मधुर स्मृतियों की बाहें पकड़कर यहां तक तो चला आया लेकिन अब लड़खड़ा रहा हूं     टूटे मन से थके तन से       पांव को‌ ढोए जा रहा हूं!     अब नहीं चला जा रहा है       लगा रहता है डर कि  मधुर- स्मृतियों की बांहें मुझे     मझधार में ही न छोड़ दें   वर्तमान ज़िन्दगी के       पथ की मेरी नैया    आत्मीय संबंधों की    गंगा में डूब रही है   किससे बचाने की गुहार लगाऊं     किसे मैं पुकारूं !      संसार के बाजार की        स्वार्थ- गंगा में       हर आदमी डूबा हुआ है        उस घाट कैसे मैं जाऊं        अब नहीं चल...

नृशंस हत्या

 हत्यारों का  कोई रंग-रूप नहीं     कोई ढंग नहीं     कोई सगा नहीं     कोई मां- बाप नहीं     कोई बहन- भाई नहीं     ए धर्मांध होते हैं        जन्म से ही    नृशंसता के आंवें में    पकाया जाता है इन्हें     खूब पकाया जाता है     दोगले चरित्र का जामा   इन्हें पहनाया जाता है   क्रूरता का रंग चढ़ाया जाता है     जिस थाली में खाते हैं  उसमें छेद करने की कला में   ये निष्णात होते हैं    ए जानवरों की  सफ़ में भी बैठने लायक नहीं   जानवर बुद्धिमान होते हैं     विवेकी होते हैं     मनोरोगी नहीं होते हैं   सर्वधर्म समभाव होता है उनमें   सद्भावना के प्रतीक होते हैं    अकारण हमलावर नहीं होते     मनुष्यों से भयाक्रांत होते हैं    बच- बचाकर रहते हैं   किसी से विश्वासघात नहीं करते ज़हर देकर किसी को मारने की  ...

पिता

पिता फ्रेम में कैद फोटो   जैसे अब कुछ-कुछ हो गए   धूल खाए हुए    वक्त की मार सहे हुए   भीतर से रोज-रोज मरते हुए   अभिशाप की निरंतर     पीड़ा पीते हुए    छद्म  हंसी हंसते हुए    बिल्कुल सेट हो गए फ्रेम में     त्योहार आने पर  ‌    खिलखिला उठते हैं   फ्रेम में ही उठने- बैठने लगते हैं  खुशियां समेट नहीं ‌पाते       चेहरे पर पड़ी  धूल की आज निर्मम पिटाई होगी   रोज़ मुंह बिराती थी  उछल- उछल जाती थी  अपना रंग-रूप दिखाती थी  अपने को इंद्राणी बताती थी   जोर- जोर से  गर्दभ स्वर में गाती थी  किटी पार्टी मनाती थी  मुझे जूठन खिलाती थी   अपने संघातियों  को बुलाती थी  प्रेम से कभी दो बोल  भी नहीं बोलती थी  मेरी अनुपयोगिता की खिल्ली     भी उड़ाती थी    फ्रेम की दुनिया से     रिहाई होने पर      पिता की खुशी  मुहल्ले में भी सुनाई पड़ जाती है  ...

मरती संवेदनाएं

आज संवेदनाएं    मर चुकी हैं स्वार्थपरता की भट्ठी   में पूरी तरह जर चुकी हैं  दैवीय आपदाओं से मरते हुए घुरहू, काशी, पत्तू  के लिए भी  संवेदनाएं अपनी  भाषाई जुब़ान खो चुकी है    सड़क पर प्रजनन करती  इक्कीसवीं सदी की स्त्रियां   स़िर्फ जादूगर का तमाशा है  जहां तमाशबीन का मौन  घुट रही संवेदनाओं की एक बेजान भाषा है   यह एक यक्ष प्रश्न खड़ा है    समाज व राष्ट्र के  सामने अनुत्तरित सा पड़ा है किसी की मुट्ठी में शूल आ जाए किसी की मुट्ठी में फूल आ जाए        इस पर भी किसी प्रतिक्रिया का न उठना    हमारी संवेदनाओं    का दम तोड़ना है!   किस युग में जी रहे हैं  रोज़ संवेदनाओं को क्यों पी रहे हैं   किसी दिन उलीच दें   तो संवेदनाओं की एक नई किरणों के आक्सीजन   के सहारे ही   कुछ लोगों को    बेंटीलेटर पर जाने से  रोका जा सकता है  गुफ़ाओं में चिरकाल से पड़ी बजबजाती दुर्गन्धित असंवेदनशीलता की बंद मुट्ठियों  के दरवज्जे ...

जीवेषणा ही जीवित रखती है

मैं तुम्हें एक आशा दे रहा हूँ जो अभी और यहीं है । कल की चिंता क्यों करनी ? कल तो कभी आया ही नहीं । सदियों से कल तुम्हें घसीटता रहा है , और इतनी बार इस कल ने तुम्हें धोखा दिया है कि उससे चिपके रहने में अब कोई सार नजर नहीं आता । अब तो कोई मूर्ख ही कल से चिपका रह सकता है । जो अभी भी भविष्य में जी रहे हैं वे यही सिद्ध कर रहे हैं कि वे बिलकुल वेवकूफ हैं । मैं इसी क्षण को ऐसी गहन परितृप्ति बनाने की कोशिश कर रहा हूँ कि जीवेषणा की कोई जरूरत ही न रहे । जीवेषणा की जरूरत इसीलिए पड़ती है , क्योंकि तुम जीवित न हो । जीवेषणा किसी तरह तुम्हें सहारा देती रही है ; तुम नीचे की ओर फिसलते रहते हो और जीवेषणा तुम्हें उठाकर खड़ा करती है । मैं तुम्हें कोई नई जीवेषणा देने की कोशिश नहीं कर सका हूँ , मैं तुम्हें जीना सिखा सकता हूँ , बिना किसी इच्छा के , और आनंदित होकर जीने की क्षमता सबमें है । यह कल की आशा है जो तुम्हारे आज को विषाक्त करती रहती है । बीते हुए कल को भी भूल जाओ , आने वाले कल को भी भूल जाओ । आज ही सब कुछ है , आज ही हमारा है । इसी का हम उत्सव मनाएँ , और इसी को जीएँ । और इसको जीने से ही तुम इतने मजबूत ...