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Showing posts from December, 2019

नया साल ! क्या सचमुच नया है ?

31 दिसम्बर की रात, पूरा माहौल रंगीन और जश्न में डूबा है। उत्तेजना बढ़ती जाती है और इकतीस दिसंबर की आधी रात हम सोचते हैं कि पुराना साल रात की सियाही में डुबोकर कल सब कुछ नया हो जाएगा। यह एक रस्म है जो हर साल निभाई जाती है, जबकि हकीकत यह है कि दिन तो रोज ही नया होता है, लेकिन रोज नए दिन को न देख पाने के कारण हम वर्ष में एक बार नए दिन को देखने की कोशिश करते हैं। दिन तो कभी पुराना नहीं लौटता, रोज ही नया होता है, लेकिन हमने अपनी पूरी जिंदगी को पुराना कर डाला है। उसमें नए की तलाश मन में बनी रहती है। तो वर्ष में एकाध दिन नया दिन मानकर अपनी इस तलाश को पूरा कर लेते हैं। यह सोचने जैसा है जिसका पूरा वर्ष पुराना होता हो उसका एक दिन नया कैसे हो सकता है? जिसकी पूरे साल पुराना देखने की आदत हो वह एक दिन को नया कैसे देख पाएगा? देखने वाला तो वही है, वह तो नहीं बदल गया। जिसके पास ताजा मन हो वह हर चीज को ताजी और नई कर लेता है, लेकिन हमारे पास ताजा मन नहीं है। इसलिए हम चीजों को नया करते हैं। मकान पर नया रंग-रोगन कर लेते हैं, पुरानी कार बदलकर नई कार ले लेते हैं, पुराने कपड़े की जगह नया कपड़ा लाते हैं। हम

कोख की आवाज

कोख की आवाज (कविता) कोख में ‌पल रही‌ बेटी  मां से कह रही है  अपनी व्यथा सुनो मेरे जीवन की कथा! नहीं जन्म लेना चाहती  तुम भी मुझे ‌पाकर नहीं खोना चाहती  कुछ दिन खेलकर   पढ़ने लिखने लग जाऊंगी थोड़ी बड़ी हो‌ने पर ससुराल चली जाऊंगी  नहीं रखेगा कोई आपकी तरह मेरा ख्याल  दहेज की खातिर ‌ रोज़ ताने सुनने पड़ेंगे खुद से ही मन की बात भी कहने पड़ेंगे तुम भी ‌दर्द के ‌आंसू  चाहकर भी नहीं  पोछ पाओगी घुट घुटकर जीवन  जीना पड़ेगा  अपमान ‌का बिष निरंतर पीना पड़ेगा अगर दहेज की मांग की  कसौटी पर खरी नहीं ऊतर पाऊंगी तो फिर जिंदा ही  जला दी जाऊंगी  अगर ‌कहीं इससे बच गयी तो किसी वहशी दरिंदों ‌की  बलि चढ़ जाऊंगी  मुझे इस धरा पर मत लाओ एक उपकार कर दो मां कोख को ही सूना कर दो बाहर नर भेड़िए ‌घूम रहे हैं  किसी मां की कोख सूंघ रहे हैं मुझे इस धरा पर मत लाओ ‌मां! डॉ०सम्पूर्णानंद मिश्र स्नातकोत्तर शिक्षक हिंदी केन्द्रीय विद्यालय इफको फूलपुर इलाहाबाद ( प्रयागराज)