Skip to main content

Posts

Showing posts from August, 2020

बस इंतज़ार करना होगा

  ताकत होती है  विध्वंस से अधिक निर्माण में    निर्माण पलता है   विध्वंस के गर्भ में ही    खेल चलता रहता है    सृष्टि में दोनों का अनवरत  नहीं महसूस करनी चाहिए    असहजता ऐसे समय में         हांलांकि  दुःख देता है  विध्वंस अक्सर     कभी- कभी   लकवा मार देता है   मनुष्य के साहस को भी  लेकिन काम लेना चाहिए धैर्य से  नियंत्रित करना चाहिए     मन के घोड़े को  विवेक के रज्जू से   पांच सौ वर्षों के  वनवास की पूरी हो गई अवधि हर लोगों ने माना अस्तित्व को   मर्यादा पुरुषोत्तम राम के       स्थापित होंगे  अपने नियत स्थान पर पराभव हुआ छलियों का   निष्प्रभावी हो जाती हैं   मायावी शक्तियां  कुछ चमत्कारी प्रदर्शन के बाद    सेंकते रहते हैं निरंतर      सियासी रोटियां   विध्वंस के तवे पर      कुछ वंशवादी नहीं बची खाने लायक किसी के गिर गए औधें मुंह   आई० सी० यू० में हैं आज  ज़मीन अपनी ढूंढ़नी होगी उन्हें   कि कहां खड़े हैं हम   चिंतन- मनन करना होगा कि  घर- घर में हैं सबके राम  घर- घर के हैं राम सबके  बस इंतजार था वक्त का     लोहा मान गए  सिकंदर और सुकरात दोनों  नहीं होता वक्त, किसी का हमेशा    जीवन में उतन

जीवन का लक्ष्य क्या है?

यह मेरा सौभाग्य कि अब तक, मैं जीवन में लक्ष्यहीन हूं। मेरा भूत भविष्य न कोई, वर्तमान में चिर नवीन हूं। कोई निश्चित दिशा नहीं है, मेरी चंचल गति की बंधन। कहीं पहुंचने की न त्वरा में, आकुल व्याकुल है मेरा मन। खड़ा विश्व के चैराहे पर, अपने में ही सहज लीन हूं। मुक्त दृष्टि निरुपाधि निरंजन, मैं विमुग्ध भी उदासीन हूं। ये कितना सौभाग्य है मेरा, कि यह जीवन लक्ष्यहीन है, चलने वाले ढे़र यहां पर, मेरा जीवन पथ-विहीन है।। कोई निश्चित दिशा नहीं है, मेरी चंचल गति की बंधन, यह सारा आकाश है मेरा, उडूंं जहां चाहे मेरा मन। रहजन से है नहीं कोई भय, मेरे पास नहीं कोई धन, सता नहीं सकते हैं मुझको, करने वाले मार्ग-प्रदर्शन। क्योंकि मंजिल नहीं है कोई, अपने आप में पथिक लीन है, ये कितना सौभाग्य है मेरा, कि यह जीवन लक्ष्यहीन है।। कितने वृक्षों पर मैं सोया, उनकी कोई याद नहीं अब, मित्र मिले-बिछुड़े कब रोया, अलविदा कहकर भूल गया सब। नहीं तनिक भी फिक्र हृदय में, आगे क्या होगा कैसे कब, एक भरोसा है खुद पर बस, जब जो होगा देखूंगा तब। बिना याद और बिना आस के, सब कुछ कैसा चिर-नवीन है, ये कितना सौभाग्य है मेरा, कि यह जीवन लक्ष्यही

रंग बदल लेता है

रंग बदल लेता है इंसान    अपनी- अपनी  जरूरतों के मुताबिक  गिरगिट भी रंग बदलता है       पर उसका  रंग बदलना स्वाभाविक होता है हार्मोनल होता है  प्राकृतिक होता है       हां कभी- कभी  अपनी जान बचाने के लिए   शत्रु- दल की आंखों में धूल  झोंकने के लिए भी होता है      मनुष्य ने     रंग परिवर्तन के   इस रण  में उसे     पछाड़ दिया है   चित कर दिया है    महि- समर में    वह निश्चेष्ट पड़ा है   इस रंग परिवर्तन में खूब प्रशिक्षण प्राप्त किया है  आनलाइन भी शिक्षित और प्रशिक्षित होता रहता है    इतना रंग बदलता है     कि कोई भी खा जाता है धोखा    नहीं पहचान पाता है उसके     वास्तविक रंग- रूप को  प्रेम के मुखौटे में छिपे स्वार्थ के विकृत चेहरे की पहचान     नहीं कर पाता है       निष्णात होता है       रंग परिवर्तन में         गढ़ लेता है     परिभाषा भी प्रेम की      बिछा देता है    जाल कुछ दानों के     फंसा लेता है  उन निश्चछल कबूतरों को   जो भूख की ख़ातिर      हो जाते हैं अंधे    नहीं देख पाते हैं  प्रेम की मलाई में  प्रच्छन्न अपनी मृत्यु को और किसी क्रूर  बहेलिए का    बन जाते हैं शिकार  संपूर्णानंद मिश्र