Skip to main content

Posts

Showing posts from November, 2019

नानक गृहस्थ भी हैं, संन्यासी भी- ओशो

नानक ने एक अनूठे धर्म को जन्म दिया है, जिसमें गृहस्थ और संन्यासी एक हैं। और वही आदमी अपने को सिख कहने का हकदार है, जो गृहस्थ होते हुए संन्यासी हो, संन्यासी होते हुए गृहस्थ हो। सिख होना बड़ा कठिन है। गृहस्थ होना आसान है। संन्यासी होना आसान है, छोड़कर चले जाओ जंगल में। सिख होना कठिन है क्योंकि सिख का अर्थ है- संन्यासी, गृहस्थ एक साथ। रहना घर में और ऐसे रहना जैसे नहीं हो। रहना घर में और ऐसे रहना जैसे हिमालय में हो। करना दुकान, लेकिन याद परमात्मा की रखना। गिनना रुपए, नाम उसका लेना।  नानक को जो पहली झलक मिली परमात्मा की, जिसको सतोरी कहें, वह मिली एक दुकान पर, जहां वे तराजू से गेहूं और अनाज तौल रहे थे। अनाज तौल कर किसी को दे रहे थे। तराजू में भरते और डालते। कहते-एक, दो, तीन...दस, ग्यारह, बारह... फिर पहुंचे वे 'तेरा'। पंजाबी में तेरह का जो रूप है, वह 'तेरा'। उन्हें याद आ गई परमात्मा की। तेरा', दाईन, दाऊ-धुन बन गई। फिर वे तौलते गए, लेकिन संख्या तेरा से आगे न बढ़ी। भरते, तराजू में डालते और कहते 'तेरा'। भरते, तराजू में डालते और कहते तेरा। क्योंकि आखिर

Are-you-begger-or-King

फकीर कौन है? जिसके पास वस्तु का अभाव है, उसे फकीर माना जाता है। ..... पर यह मान्यता सिरे से ही गलत है। फकीरी का संबंध वस्तु के होने या न होने से, नहीं है, अभाव की अनुभूति से है। जिसके बाहर वस्तु न होते हुए भी, भीतर अभाव का भाव नहीं है, वह फकीर नहीं अमीर है। जिसके बाहर कितना ही वस्तु भंडार है, यदि वह भीतर से अभावग्रस्त है, तो वह अमीर नहीं है, भिखारी है। भिखारी वो नहीं जिसके पास वस्तु नहीं, भिखारी वो है जिसकी वस्तु की माँग बनी है। वह बादशाह जिसकी बादशाही वस्तु पर निर्भर है, वस्तु न रहे तो वह बादशाहत टिकेगी? जो कुछ चाहता नहीं, माँगता नहीं, उसका आनन्द वस्तु के होने से बनता नहीं, न होने से बिगड़ता नहीं, जो मस्त है, जो संतुष्ट है, देखने में कितना ही फकीर लगता हो, पर वह फकीर नहीं, वह तो बादशाहों का बादशाह है। "चाह मिटी चिन्ता मिटी, मनुवा बेपरवाह। जाको कछु ना चाहिए, सो शाहन के शाह॥"