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Showing posts from May, 2021

ग़ज़ल - रचनाकार डॉ सम्पूर्णानंद मिश्र

  हवा इस कदर बेवफा हो चली लूटकर अर्क भी वहां से न टली जब दामन हमारे दागदार हो गए तो खुशबू भी मुझसे यूं रुठ चली   ज़िंदगी हमेशा यूं ही डराती रही मुझे मेरे विश्वास से लड़ाती रही मेरे पहरेदार जब कोरोना हो गए तो मौत जीवन का फ़लसफ़ा सिखाती रही   आदत हो गई अब हमेशा मुस्कुराने   की रात हो या दिन कंधों पर लाशें उठाने की अब पूरा शहर मुझसे वाकिफ हो गया क्योंकि बारी है जुम्मन मियां के मैय्यत में जाने की     डॉ  सम्पूर्णानंद मिश्र प्रयागराज फूलपुर 7458994874

बुद्ध पूर्णिमा की शुभकामनाएं

बुद्ध ने कहा मुझ पर भरोसा मत करना | मैं जो कहता हूँ उस पर इसलिए भरोसा नहीं करना कि मैं कहता हूँ | सोचना , विचारना, जीना | तुम्हारे अनुभव की कसौटी पर सही हो जाए तो सही है | भगवान बुद्ध के अंतिम वचन हैं : “अप्प दीपो भव” | अपने दिए खुद बनना | क्यूंकि तुम मेरी रौशनी में थोड़ी देर रोशन हो लोगे | फिर हमारे रास्ते अलग हो जायेंगे | मेरी रौशनी मेरे साथ होगी, तुम्हारा अँधेरा तुम्हारे साथ होगा | अपनी रौशनी खुद पैदा करो |  

फांकें में एक रात

  गुलफ़ाम महज़ तेरह साल का था , जब उसके अब्बू फ़िरोज़ अल्ला को प्यारे हो गए। प्रयागराज के एक छोटे से कस्बे में एक छोटी सी दुकान है , जहां फ़िरोज़ बाइक बनाने का काम करता था।चालीस साल की अवस्था थी। बेहद चुस्त-दुरुस्त , शरीर गठा हुआ , नीली आंखें , हिरण की तरह फुर्तीला। एक अलग ही सांचे में पकाकर अल्ला ताला ने उसको निकाला था। व्यवहार में विनम्रता। ईमानदारी तो उसके चेहरे के दर्पण से ही अपना प्रतिबिंब दिखा देती थी। उसके पूर्वज बिहार से बहुत पहले ही आकर बस गए थे। उन दिनों चंपारण में आज की तरह ही एक महामारी आई थी , जिसमें गुलफ़ाम के परदादा सब कुछ छोड़कर जान बचाकर यहां आ गए थे तब से यह परिवार यहीं रहने लगा। फ़िरोज अच्छा मैकेनिक था इसमें किसी तरह का कोई संशय नहीं था , मीठी ज़ुबान थी। किसी भी ग्राहक को निराश नहीं करता था। देर सबेर सभी का काम कर देता था , पैसा जो दे दो उसी में संतोष कर लेता था। संतोष जिसके मन में आ जाय बड़े से बड़ा प्रलोभन उसकी ईमान को नहीं डिगा सकता है। उस रात को गुलफ़ाम कभी भी नहीं भूल सकता जिस दिन महज़ दो सौ ग्राम दूध पीकर पेट सहलाते हुए निद्रा देवी को वह नींद के लिए पुकार रहा थ

हमारे पुरखे

  हाड़ मांस से ही बने हुए थे हमारे पुरखे हमीं लोगों की तरह भिन्न नहीं थे हवाई यात्रा तक नहीं की थी अधिकांश ने इनमें से कई तो शहर के सूर्य को देखे बिना ही देवलोक चले गए हां भिन्नता थी हममें और उनमें जहां हमारी कमीजें कृत्रिम इत्र की खुशबू से आभिजात्य होने का झूठा दर्पण दिखाती हैं वहीं उनकी   बंडी से मानवता के इत्र की खुशबू निकलकर उनके देवत्व का दर्शन कराती थी कांटे जहां बिछा रखे हैं नफ़रत के हम लोगों ने प्रेम के फूल लिए हुए थे अपने हृदय की डलिया में वहीं वे जहां हम लोग दूसरों के सुख - रस में ज़हर का रूहआफ़जा मिलाते हैं वहीं वे दु : ख में लोगों के हिम्मत और धैर्य की शर्करा मिलाते थे जहां हम भटके हुए लोगों को और भटका देते हैं वहीं वे अंधकार आंखों को एक अदद उम्मीदों की रोशनी दिखाते थे क्या - क्या गिनवाऊं क्या - क्या बतलाऊं दोस्तों हमारे पुरखे आदमी ही थे हमीं लोगों की तरह लेकिन वो आदमी नहीं

फिर बहार आयेगी

  फिर बहार आयेगी तम की रजनी छंट जायेगी आज मौत सहन में खड़ी है ज़िंदगी से दो - दो हाथ लड़ पड़ी है हिम्मत से काम लो यारों   जीवन में जूझना है प्यारों इस कदर हार जाओगे तो दुर्धर्ष योद्धा कैसे बन पाओगे मानाकि विजय कोसों दूर है लेकिन हौंसले में भी नूर है काल को भी पथ बदलना होगा अपने चक्र की दिशाको मोड़ना होगा खुशियां कल अपना फूल खिलाएंगी ज़िंदगी के चमन में फिर बहार आयेगी।।     सम्पूर्णानंद मिश्र प्रयागराज फूलपुर 7458994874