वह सुंदर कली थी
भ्रमर मंडराते थे
उस पर कभी
रसपान करते हुए
हजारों वादे निभाने की
कसम खाते थे
उत्कंठित थे
एक झलक पाने की
अवगुंठन हटाने के लिए
ज़िंदगी भी दांव पर लगाते थे
मौत भी हुस्न के
बाज़ार में सस्ती बिक जाती थी
इस प्रतिस्पर्धा में
आम आदमी तो
वृंत-स्पर्श में ही सुख पाते थे
परिपक्व कली तक
सभी मधुकर नहीं पहुंच पाते थे
फिर भी उसने
कभी निराश नहीं किया अपने चाहने वालों को
दोनों हाथ अर्क
अपने प्रेमियों को लुटाती थी
आज हुस्न उसकाढल गया
मौत भी ज़िंदगी से
फिर महंगी हो गई
डालियों को छोड़कर
कुछ भौंरे तोताचश्म हो गए
इश्क की दरिया में एक भ्रमर
अब भी अपना
नेह लुटा रहा था
सबसे बड़ा प्रेमी अपने को
बता रहा था
आज वह भी बेवफा हो गया
रसहीन कली का
परित्याग कर
चमन में खिली
प्रतिवेशी कली का हो गया!
संपूर्णानंद मिश्र
प्रयागराज फूलपुर
7458994874
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