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Showing posts from January, 2020

आदमी की व्यथा

एक घर की ख्वाहिश आदमी  रखता है पूरा ‌होते ही ‌ उससे बड़ा  चाहता है जीवन ‌भर  छटपटाता है बड़ा घर होते ही  रिहायशी  इलाकों में  जिंदगी  जीना चाहता है  इच्छाओं की सुरसा  मुंह बाए खड़ी है  उसे पूरी तरह ‌ निगलना चाहती है ‌ आदमी निरंतर‌  इसमें फंसता है  एक झूठी  हंसी हंसता है  उसका अंतहीन  सिलसिला  कभी थमता नहीं! इस क्रम में  अपने पसीनों को  पानी की तरह  बहाता है  मजबूरी  के  रक्त‌ से   से अपने अरमानों की बुनियाद खड़ी करवाता है  तब जाकर कंगूरे  की आफ़ताबी चमक  लोगों को दिखाता है वह संसार की  भूल-भुलैया में ‌मुक्कमिल  खो ‌जाता है  सीवन ‌को उधेड़ कर  प्रसन्न होता है ‌ सुख के सागर में गोता लगाता है  और अंत में  शंख सीपियां की  कमाई करके  संसार छोड़  जाता है ! डॉ०सम्पूर्णानंद मिश्र स्नातकोत्तर शिक्षक हिंदी केन्द्रीय विद्यालय इफको फूलपुर इलाहाबाद ( प्रयागराज)

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अ से ज्ञ तक एक प्रयास

अ भी  आ ज  इ स कविता को पढ़ सोचा मैंने ई शिता इस अंजान कवि की  उ मढ़े भी मेरे मन-मस्तिष्क में विचार ऊ पर लिखू मैं भी कुछ क्या इस पर  ऋ तु बदली मेरे हृदय में भी  ए क क्षण को  ऐ तबार खुद पर करके ओ ढ़के लेखनी की ओढनी औ र शब्दों की चासनी अ न्तर्मन को पुरोकर अ:  मैंने यह कहा क हा कि  खु श रहती हूँ मैं हमेशा  गु नगुनाती  घ ड़ी घड़ी  च हचहाती छु पके नहीं कभी घबराती ज ब भी कभी  झ नझावत आते टू टी नहीं  ठ हरी एक पल को  ड गमग सफर में भी  ढ लते उतरते रण में भी  त न्मयता के साथ थ पेड़ों का  दे ते हुए जवाब धी रे से मुस्काती  न हीं, नहीं, नहीं  प थ पर मैं अकेली फू लों से सदैव सजे नहीं होते पथ बा णों से भी निपटना होता हैं भ रोसा स्वयं पर कर के  मं जिल की ओर  य हाँ कदम बढ़ाना होता हैं रा त भी दुखों की बीत जाती हैं ला लिमा जब सूर्य की आती हैं वि राम देती हूँ अब लेखनी को  शा यद  षो डस  श्रृंगार से  सृ जित नहीं  है  ये कविता क्ष णिक ही सही  त्र णरेणु के सामान मेरें ज्ञा न चक्षु खोलती अंजान कवि की ये कविता कवित्री -

हिन्दी वर्णमाला का क्रम से कवितामय प्रयोग

अ चानक, आ कर मुझसे, इ ठलाता हुआ पंछी बोला। ई श्वर ने मानव को तो- उ त्तम ज्ञान-दान से तौला। ऊ पर हो तुम सब जीवों में- ऋ ष्य तुल्य अनमोल, ए क अकेली जात अनोखी। ऐ सी क्या मजबूरी तुमको- ओ ट रहे होंठों की शोख़ी! औ र सताकर कमज़ोरों को, अं ग तुम्हारा खिल जाता है; अ: तुम्हें क्या मिल जाता है? क हा मैंने- कि कहो, ख ग आज सम्पूर्ण, ग र्व से कि- हर अभाव में भी, घ र तुम्हारा बड़े मजे से, च ल रहा है। छो टी सी- टहनी के सिरे की ज गह में, बिना किसी झ गड़े के, ना ही किसी- ट कराव के पूरा कुनबा पल रहा है। ठौर यहीं है उसमें, डा ली-डाली, पत्ते-पत्ते; ढ लता सूरज- त रावट देता है। थ कावट सारी, पूरे दि वस की-तारों की लड़ियों से ध न-धान्य की लिखावट लेता है। ना दान-नियति से अनजान अरे, प्र गतिशील मानव, फ़ रेब के पुतलो, ब न बैठे हो समर्थ। भ ला याद कहाँ तुम्हे, म नुष्यता का अर्थ? य ह जो थी, प्रभु की, र चना अनुपम....... ला लच-लोभ के व शिभूत होकर, श र्म-धर्म सब तजकर। ष ड्यंत्रों के खेतों में, स दा पाप-बीजों को बोकर। हो कर स्वयं से दूर- क्ष णभंगुर सुख में अटक चुके

स्वामी विवेकानंद- युवाओं के लिए संदेश

स्वामी विवेकानंद जी अमरीका से वापिस आए तो बंगाल में अकाल पड़ा था। तो वे तत्‍क्षण आकर अकालग्रस्त क्षेत्र में सेवा करने चले गए। स्वामी जी अमरीका से लौटे, भारत की पताका फहरा कर लौटे! तो पंडित दर्शन करने आए थे, लेकिन जब पंडित आए तो स्वामी विवेकानंद ने न तो वेदांत की कोई बात की, न ब्रह्म की कोई चर्चा की, कोई अध्यात्म, अद्वैत की बात ही न उठाई, वे तो अकाल की बात करने लगे और वे तो जो दुख फैला था चारों तरफ उससे ऐसे दुखी हो गए कि खुद ही रोने लगे पंडित एक—दूसरे की तरफ देख कर मुस्कुराने लगे कि यह असार संसार के लिए रो रहा है। यह शरीर तो मिट्टी है और यह रो रहा है, यह कैसा ज्ञानी! विवेकानंद जी ने पूँछा आप हंसते क्यों हैँ? तो उनके प्रधान ने कहा कि हंसने की बात है। हम तो सोचते थे आप परमज्ञानी हैं। आप रो रहे हैं? शास्त्रों में साफ कहा है कि हम तो स्वयं ब्रह्म हैं, न जिसकी कोई मृत्यु होती, न कोई जन्म होता। और आप ज्ञानी हो कर रो रहे हैं? हम तो सोचते थे, हम परमज्ञानी का दर्शन करने आए हैं, आप अज्ञान में डूब रहे हैं! विवेकानंद का डंडा पास पड़ा था, उन्होंने डंडा उठा

*सुख और दुःख#

नगर ‌के व्यस्त ‌ ‌चौराहे पर आज़ दुःख और सुख  ‌दोनों‌‌ लड़ ‌गए  अपनी-अपनी  बात पर अड़‌ गए सुख ‌ने‌ कहा कि किसी आदमी के  ‌जीवन‌‌ में ‌आकर मैं उसको‌‌ संवार देता हूं  प्रतिष्ठा और हैसियत का‌ हार पहना देता हूं  वह आदमी कहलाने लायक हो ‌जाता है अपनी ही नज़र में वह सम्मानित हो जाता है  उसे अपने परिवार और समाज का नायक बना देता हूं सब मुझे चाहते हैं और अपनाते हैं तुम्हारी ‌कोई इज्जत नहीं     तुम्हें  कोई  चाहता नहीं ‌ कभी कोई अपनाता नहीं घर के ‌सारे दरवाजे तुम्हारे लिए बंद   हो ‌जाते हैं दबे पांव चोरों की तरह आते हो दुरदुराए जाते हो भगाए जाते हो लतियाए जाते हो फिर भी लोगों की   जिंदगी में आ‌ जाते‌ हो सब मुझे पालते हैं पोसते  हैं हृदय की ‌आलमीरा में बड़े जतन से रखते हैं‌ ! दुःख ने कहा  तुमने ‌जो कही है बात बिल्कुल सही है लेकिन हम ‌दोनों में एक बहुत बड़ा ‌फर्क है ‌ इसमें नहीं कोई ‌तर्क है कि‌ जिसकी जिंदगी में तुम्हारा प्रवेश‌ हो जाता है वह आदमी नहीं संपूर्ण रूप से राक्षस बन जाता है मैं जिस ‌व्यक्ति के जीवन में आ जाता हूं ‌ उसे जीना सिखा देता

#मुंबई का लोकल ट्रेन#

जीवन को‌ मुंंबई के लोकल ट्रेन में सफ़र करते हुए यात्रियों की    तरह जिओ रोज़ मिलते हैं ‌ रोज़ बिछुड़ते‌ हैं रोज़ धक्के खाते हैं रोज़ ‌रोते हैं रोज़ हंसते हैं रोज़ टूटते हैं फिर ‌अपने पैरों पर खड़ा होकर चलने लगते हैं लोकल ट्रेन से इनका गहरा रिश्ता है  उसकी भाषा भी खूब समझते हैं उसकी चाल ‌और मुंबई के यात्रियों की चाल में एक ‌समानुपातिक संबंध है दोनों अपने-अपने    गंतव्य तक पहुंचने के लिए ‌   आबद्ध हैं लेकिन किसी बात ‌ का‌‌ कोई मलाल‌ नहीं किसी का कोई  बुरा हाल नहीं न कोई गिला न शिकवा सब अपनी अपनी ‌ मस्ती में  जी रहे हैं‌ अपने ही दर्द को    पी रहे हैं अपना-अपना खा रहे हैं अपना-अपना कमा रहे हैं न किसी से ‌कोई आशा न किसी से ‌कोई निराशा यहां किसी ‌से‌ उम्मीद करना पानी पर लकीर खींचना है हम लोग अगर ऐसा ही जीवन जीने लगेंगे       तब कभी हमें अपमान के‌ बिष नहीं पीने पड़ेंगे डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र स्नातकोत्तर शिक्षक हिंदी केन्द्रीय विद्यालय इफको फूलपुर इलाहाबाद ( प्रयागराज)

#संकल्प#

नववर्ष की‌‌ पूर्व संध्या पर‌ समूचा देश ‌ संकल्पबद्ध‌ होता है अपने अपने विकारों से मुक्त ‌होने के लिए      नई-नई योजनाएं बनाता‌ है द्वेष की दीवारें गिराने के लिए ‌प्रेम पुष्प बरसाने की सौगंध खाता है एक आदर्श राष्ट्र बनाना चाहता है मानवता ‌की रेल ‌सबके हृदय की पटरी पर चलाना चाहता है लेकिन ‌कौन सी‌ स्थिति‌ है वह ‌कौन‌ सी‌ परिस्थिति है कि कुछ दिन बाद ही  ‌हम लोगों के संकल्पों का बल्ब फ्यूज हो जाता है क्या पाशविक ‌प्रवृत्तियों  की जड़ें लोगों के मन में दूर तक जमी हुई हैं या हम लोगों से ही ‌ कोई‌ कमी हुई है कहीं न कहीं से सभी ने अपने ‌-अपने दिलों की जमीन पर भेदभाव ‌की इमारतें खड़ी ‌कर दी हैं और नफ़रत की ‌ ए० सी०सी०सीमेंट से उसको प्लास्टर भी करवा दी है शायद इसीलिए ‌कुछ‌ दिनों में संकल्प क्षीण हो जाते हैं और नववर्ष की पूर्व संध्या पर ली गई ‌प्रतिज्ञा‌ विचारहीन ‌हो जाती हैं। डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र स्नातकोत्तर शिक्षक हिंदी केन्द्रीय विद्यालय इफको फूलपुर इलाहाबाद ( प्रयागराज)

#एक बेटी ऐसी भी#

जब आंखें उसकी खुली‌ कुछ जानने समझने लायक हुई ‌ मलिन बस्तियां स्वागत में खड़ी थीं‌ उसके ‌ एक‌ गहन अंधेरा अगले दिन ‌का सबेरा‌ बाप‌ पर कर्ज  शरीर ‌में असंख्य मर्ज ग़रीबी की चादर में लिपटा इक्कीसवीं सदी का भारत पढ़ाने ‌के लिए संघर्ष ‌के कागज़ की किताब प्रकाश के इस युग में अब भी ढिबरी रोटी की तलाश में भविष्य ‌के‌ फूलों का खिलना दूर-दूर तक नहीं फटे हुए कपड़ों में छिपा हुआ बचपन इमदाद के लिए कोई हाथ नहीं सुनहले स्वप्न ‌ को संजोए आंखों में धुंध सर्वत्र झांकती हुई निराशा दूर-दूर तक व्याप्त थी एक‌ ऐसी बेटी को पिता ने जन्म पर उसके एक नायाब तोहफ़ा उसके कोमल हाथों में उसकी जिद़ के बिना ही दे दिया इक्कीसवीं सदी की वह बेटी उसे लिए भारत की तसबीर ‌बदलने कुज्झटिकाओं से आच्छादित इस सर्द में फुटपाथ पर धीरे-धीरे चल पड़ी एक बेटी ऐसी‌ भी! डॉ०सम्पूर्णानंद मिश्र स्नातकोत्तर शिक्षक हिंदी केन्द्रीय विद्यालय इफको फूलपुर इलाहाबाद ( प्रयागराज)

#प्रेम#

#प्रेम# प्रेम ही समर्पण ‌है प्रेम ही अर्पण है प्रेम ही त्याग है प्रेम ही जीवन  का ‌भाग है प्रेम  रस‌ है प्रेम बिना सब विरस है प्रेम‌ मीरा कबीर की वाणी है प्रेम सूर तुलसी की कहानी है ‌ प्रेम के सागर में रसखान ने गोता लगाया ‌ और ‌श्याम रूपी मोती ‌पाया प्रेम ही जीवन का सार है ‌ प्रेम‌ ही अभिसार है ‌ प्रेम साधना ‌है प्रेम ईश्वर की आराधना ‌है प्रेम जीवन का रंग है प्रेम जीवन का ढंग है प्रेम है तो पूरी कायनात संग है प्रेम हनीमून है प्रेम‌ नहीं तो न‌ हनी‌ है न मून है अपने जीवन में प्रेम के ढाई आखर जिसने उतार लिया उसने इस संसार से ‌ पार पा लिया।। डॉ०सम्पूर्णानंद मिश्र स्नातकोत्तर शिक्षक हिंदी केन्द्रीय विद्यालय इफको फूलपुर इलाहाबाद ( प्रयागराज)

अभिनंदन हो वंदन हो, नववर्ष का चंदन हो

नववर्ष का संदेश अभिनंदन हो वंदन हो नववर्ष का चंदन हो मंडन हो, अभिवर्धन हो नववर्ष का स्पंदन हो उर में उत्साह बना रहे नवांकुर सा तना रहे जीवन-बगिया खिलता रहे सत्कर्म पुष्प का महकता रहे आशा की डोर पकड़कर कर्मक्षेत्र-उदधि पार करता रहूं विवेकायुध लेकर जीवन-संग्राम में लड़ता  रहूं फल की इच्छा छोड़कर विद्वेष को ठेलता रहूं लेकर प्रभु का नाम नववर्ष में चलता रहूं कोशिश की दरिया में प्रेम-नैया चलाता रहूं मन जिधर भी जाय नववर्ष का संदेश सुनाता रहूं । रचनाकार- डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र स्नातकोत्तर शिक्षक हिंदी केन्द्रीय विद्यालय इफको फूलपुर ( इलाहाबाद प्रयागराज)