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मरती संवेदनाएं


आज संवेदनाएं
   मर चुकी हैं
स्वार्थपरता की भट्ठी
  में पूरी तरह जर चुकी हैं 
दैवीय आपदाओं से मरते हुए घुरहू, काशी,
पत्तू  के लिए भी  संवेदनाएं अपनी
 भाषाई जुब़ान खो चुकी है 
  सड़क पर प्रजनन करती 
इक्कीसवीं सदी की स्त्रियां 
 स़िर्फ जादूगर का तमाशा है 
जहां तमाशबीन का मौन 
घुट रही संवेदनाओं की एक बेजान भाषा है
  यह एक यक्ष प्रश्न खड़ा है
   समाज व राष्ट्र के 
सामने अनुत्तरित सा पड़ा है
किसी की मुट्ठी में शूल आ जाए
किसी की मुट्ठी में फूल आ जाए 
      इस पर भी
किसी प्रतिक्रिया का न उठना 
  हमारी संवेदनाओं
   का दम तोड़ना है!
  किस युग में जी रहे हैं 
रोज़ संवेदनाओं को क्यों पी रहे हैं
  किसी दिन उलीच दें 
 तो संवेदनाओं की एक नई किरणों के आक्सीजन
  के सहारे ही
  कुछ लोगों को 
  बेंटीलेटर पर जाने से
 रोका जा सकता है 
गुफ़ाओं में चिरकाल से पड़ी बजबजाती दुर्गन्धित असंवेदनशीलता की बंद मुट्ठियों 
के दरवज्जे की अर्गल
 को खोला जा सकता है
 
संपूर्णानंद मिश्र
 प्रयागराज फूलपुर
   7458994874

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