जिस पड़ाव पर हूं
जिस हाल में हूं
जिस अवस्था की छत पर
मैं खड़ा होकर देख रहा हूं
यहां से बाहर की दुनिया
देखने पर झांई आती है
अतीत के संबंधों की मधुर स्मृतियों की बाहें पकड़कर यहां तक तो चला आया
लेकिन अब लड़खड़ा रहा हूं
टूटे मन से थके तन से
पांव को ढोए जा रहा हूं!
अब नहीं चला जा रहा है
लगा रहता है डर कि
मधुर- स्मृतियों की बांहें मुझे
मझधार में ही न छोड़ दें
वर्तमान ज़िन्दगी के
पथ की मेरी नैया
आत्मीय संबंधों की
गंगा में डूब रही है
किससे बचाने की गुहार लगाऊं
किसे मैं पुकारूं !
संसार के बाजार की
स्वार्थ- गंगा में
हर आदमी डूबा हुआ है
उस घाट कैसे मैं जाऊं
अब नहीं चला जा रहा है
किसे मैं पुकारूं !
यहां तो सबको
अपने पैरहन की पड़ी है
संपूर्णानंद मिश्र
प्रयागराज फूलपुर
7458994874
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