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अ से ज्ञ तक एक प्रयास

भी 
ज 
कविता को पढ़ सोचा मैंने
शिता इस अंजान कवि की 
मढ़े भी मेरे मन-मस्तिष्क में विचार
पर लिखू मैं भी कुछ क्या इस पर 
तु बदली मेरे हृदय में भी 
क क्षण को 
तबार खुद पर करके
ढ़के लेखनी की ओढनी
र शब्दों की चासनी
न्तर्मन को पुरोकर
अ: मैंने यह कहा
हा कि 
खुश रहती हूँ मैं हमेशा 
गुनगुनाती 
ड़ी घड़ी 
हचहाती
छुपके नहीं कभी घबराती
ब भी कभी 
नझावत आते
टूटी नहीं 
हरी एक पल को 
गमग सफर में भी 
लते उतरते रण में भी 
न्मयता के साथ
पेड़ों का 
देते हुए जवाब
धीरे से मुस्काती 
हीं, नहीं, नहीं 
थ पर मैं अकेली
फूलों से सदैव सजे नहीं होते पथ
बाणों से भी निपटना होता हैं
रोसा स्वयं पर कर के 
मंजिल की ओर 
हाँ कदम बढ़ाना होता हैं
रात भी दुखों की बीत जाती हैं
लालिमा जब सूर्य की आती हैं
विराम देती हूँ अब लेखनी को 
शायद 
षोडस श्रृंगार से 
सृजित नहीं 
है ये कविता
क्षणिक ही सही 
त्रणरेणु के सामान मेरें
ज्ञान चक्षु खोलती अंजान कवि की ये कविता
कवित्री - श्रीमती वंदना सिंह, TGT-Social Science, KV CRPF RAMPUR

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