अभी
आज
इस कविता को पढ़ सोचा मैंने
ईशिता इस अंजान कवि की
उमढ़े भी मेरे मन-मस्तिष्क में विचार
ऊपर लिखू मैं भी कुछ क्या इस पर
ऋतु बदली मेरे हृदय में भी
एक क्षण को
ऐतबार खुद पर करके
ओढ़के लेखनी की ओढनी
और शब्दों की चासनी
अन्तर्मन को पुरोकर
अ: मैंने यह कहा
कहा कि
खुश रहती हूँ मैं हमेशा
गुनगुनाती
घड़ी घड़ी
चहचहाती
छुपके नहीं कभी घबराती
जब भी कभी
झनझावत आते
टूटी नहीं
ठहरी एक पल को
डगमग सफर में भी
ढलते उतरते रण में भी
तन्मयता के साथ
थपेड़ों का
देते हुए जवाब
धीरे से मुस्काती
नहीं, नहीं, नहीं
पथ पर मैं अकेली
फूलों से सदैव सजे नहीं होते पथ
बाणों से भी निपटना होता हैं
भरोसा स्वयं पर कर के
मंजिल की ओर
यहाँ कदम बढ़ाना होता हैं
रात भी दुखों की बीत जाती हैं
लालिमा जब सूर्य की आती हैं
विराम देती हूँ अब लेखनी को
शायद
षोडस श्रृंगार से
सृजित नहीं
है ये कविता
क्षणिक ही सही
त्रणरेणु के सामान मेरें
ज्ञान चक्षु खोलती अंजान कवि की ये कविता
कवित्री - श्रीमती वंदना सिंह, TGT-Social Science, KV CRPF RAMPUR
अति उत्तम,
ReplyDeleteउत्तम प्रयास।
ReplyDeleteVery nice....
ReplyDeleteअप्रतिम
ReplyDelete👌 👌 👍😀😊
ReplyDeleteVery nice sir
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteNice sir
ReplyDeleteअति उत्तम
ReplyDeleteइसे कहते है सही अर्थों में प्रतिभाशाली। अति उत्तम वन्दना mam👍
ReplyDeleteइसे कहते है सही अर्थों में प्रतिभाशाली। अति उत्तम वन्दना mam👍
ReplyDelete