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आदमी की व्यथा

एक घर की
ख्वाहिश आदमी 
रखता है
पूरा ‌होते ही ‌
उससे बड़ा 
चाहता है
जीवन ‌भर 
छटपटाता है
बड़ा घर होते ही 
रिहायशी
 इलाकों में 
जिंदगी 
जीना चाहता है 
इच्छाओं की सुरसा 
मुंह बाए खड़ी है 
उसे पूरी तरह ‌
निगलना
चाहती है ‌
आदमी निरंतर‌ 
इसमें
फंसता है 
एक झूठी 
हंसी हंसता है 
उसका अंतहीन 
सिलसिला 
कभी थमता नहीं!
इस क्रम में 
अपने पसीनों को 
पानी की तरह 
बहाता है 
मजबूरी  के
 रक्त‌ से 
 से अपने
अरमानों की बुनियाद
खड़ी करवाता है 
तब जाकर कंगूरे 
की आफ़ताबी चमक 
लोगों को दिखाता है
वह संसार की 
भूल-भुलैया
में ‌मुक्कमिल 
खो ‌जाता है 
सीवन ‌को उधेड़ कर 
प्रसन्न होता है ‌
सुख के सागर में
गोता लगाता है 
और अंत में 
शंख सीपियां की 
कमाई करके 
संसार छोड़ 
जाता है !
डॉ०सम्पूर्णानंद मिश्र स्नातकोत्तर शिक्षक हिंदी केन्द्रीय विद्यालय इफको फूलपुर इलाहाबाद ( प्रयागराज)

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