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Showing posts from July, 2020

दूरियां पहले से थीं

 विश्वास है मुझे  सब ठीक हो जायेगा      नहीं रहता    एक जैसा समय    दूर हो जायेगा     यह संक्रमण भी   ‌‌  खेल चलता रहता है   पतझड़ और बसंत दोनों का     नहीं बुझता है     आंवा विधाता का  घबराने की जरूरत नहीं इससे   ज़रूरत है तो बस   संयम बरतने की  पहले से ही कत्ल      होते आया है     सामाजिक दूरियों का  नई बात नहीं है यह कोई        केवल    इल्ज़ाम की चादर        ओढ़ ली है    कोरोना ने अपने ऊपर   बगीचे में ज़िंदगी के  यदि फूल खिलते हैं  तो मुरझाते भी हैं  जीवन और मृत्यु दोनों  साथ-साथ चलते हैं  साथ-साथ दौड़ते हैं  कोई इस दौड़ में दूर तक दौड़ता है कोई थक कर चूर हो जाता है  जहां थकावट हैं वहीं मृत्यु है जहां रुकावट नहीं है,     वहां जीवन है‌  मृत्यु के गर्भ में जीवन पलता है    दुःखी वही होता है   किसी...

पिता ही मेरे गुरु हैं

पिता ही मेरे गुरु हैं  गढ़ा है मुझे उन्होंने  तराशा है उस अनगढ़     पत्थर की तरह  जो बोल उठता है समय पर  गाने लगता है अपनी गाथा   बताता है अपनी व्यथा   कितनी मार सही है   यहां तक पहुंचने में    जंगलों की  खोह से निकालकर               उस देवालय तक   पहुंचाया है जिसने वह शिल्पकार मेरे पिता हैं इसका भी लंबा एक इतिहास है  वर्षों चलाई हैं छेनियां मुझ पर   कई रूपों में ढाला है   विवेक के महीन चलनी में      मुझे चाला है     ठोका है, ठठाया है  साधना की गर्म भट्टी में तपाया है  अपने मन के अनुरूप बनाया है   तब जाकर मिला है   एक नया आकार  नहीं पड़ा रहता बेकार     मिटा देता शिनाख़्त     अपने होने का  टकराती रहती भेड़ बकरियां      जंगलों से गुजरने वाली  व्यर्थ चला जाता यह जीवन  बिलीन हो जाता है पानी के      बुलबुले सदृश इस स...

गुरु पूर्णिमा

आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन गुरु पूजा का विधान है। गुरु पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरम्भ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-सन्त एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से भी सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, वैसे ही गुरु-चरणों में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शान्ति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है। गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय। बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।। कबीर

आते रहते हैं

नहीं होना चाहिए विचलित आते रहते हैं सुख-दु:ख समभाव में जीना चाहिए   अहंकार की रस्सियां  जल जाती हैं एक दिन  जलाया जाता है रावण  दशहरे के दिन अभी भी       बचा है रावण  अभी भी हमारे भीतर   मुक्त हो जायेगा रावण भी उस दिन सदा-सदा के लिए    जब झड़ जायेगा  पूंछ की तरह हमारा दर्प भी   बढ़ जाते हैं नाखून  काटने पर अब भी क्योंकि अभी भी बची हुई हैं   पाशविक प्रवृत्तियां हमारे भीतर  रह- रह मारती ही रहती हैं डंक  मिथ्या प्रर्दशन केवल जलाता है | अभिमान की रोटियां  वंचित कर देता है   वर्तमान सुखों से भी  बचना चाहिए इससे     करना चाहिए  चिंतन- मनन हमें  आता है दुःख भयावह रूप में   मिटा देता है शिनाख़्त  कुछ नहीं बचता है शेष  धारण रखना चाहिए धैर्य   ईश्वर साथ रहता है  अनवरत हम सभी के  भूल जाते हैं सुखों में उसे  पानी पर खींचा हुआ  लकीर है सुख केवल  वहम पाले हुए हैं अनावश्यक    नहीं रह जायेगा...