पिता ही मेरे गुरु हैं
 गढ़ा है मुझे उन्होंने 
तराशा है उस अनगढ़ 
   पत्थर की तरह 
जो बोल उठता है समय पर 
गाने लगता है अपनी गाथा 
 बताता है अपनी व्यथा 
 कितनी मार सही है 
 यहां तक पहुंचने में
   जंगलों की
 खोह से निकालकर             
 उस देवालय तक 
 पहुंचाया है जिसने
वह शिल्पकार मेरे पिता हैं
इसका भी लंबा एक इतिहास है 
वर्षों चलाई हैं छेनियां मुझ पर
  कई रूपों में ढाला है 
 विवेक के महीन चलनी में
     मुझे चाला है 
   ठोका है, ठठाया है 
साधना की गर्म भट्टी में तपाया है 
अपने मन के अनुरूप बनाया है
  तब जाकर मिला है 
 एक नया आकार 
नहीं पड़ा रहता बेकार 
   मिटा देता शिनाख़्त
    अपने होने का 
टकराती रहती भेड़ बकरियां     
जंगलों से गुजरने वाली 
व्यर्थ चला जाता यह जीवन 
बिलीन हो जाता है पानी के 
    बुलबुले सदृश
इस संसार के भवसागर में
    नमन करता हूं 
   उस महान पिता को 
    आज गुरु के रूप में
संपूर्णानंद मिश्र
प्रयागराज फूलपुर
7458994874

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