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आते रहते हैं

नहीं होना चाहिए विचलित
आते रहते हैं सुख-दु:ख
समभाव में जीना चाहिए 
 अहंकार की रस्सियां 
जल जाती हैं एक दिन 
जलाया जाता है रावण
 दशहरे के दिन अभी भी 
     बचा है रावण
 अभी भी हमारे भीतर 
 मुक्त हो जायेगा रावण भी
उस दिन सदा-सदा के लिए
   जब झड़ जायेगा 
पूंछ की तरह हमारा दर्प भी 
 बढ़ जाते हैं नाखून 
काटने पर अब भी
क्योंकि अभी भी बची हुई हैं 
 पाशविक प्रवृत्तियां हमारे भीतर
 रह- रह मारती ही रहती हैं डंक
 मिथ्या प्रर्दशन
केवल जलाता है |
अभिमान की रोटियां
 वंचित कर देता है 
 वर्तमान सुखों से भी 
बचना चाहिए इससे 
   करना चाहिए 
चिंतन- मनन हमें 
आता है दुःख भयावह रूप में
  मिटा देता है शिनाख़्त 
कुछ नहीं बचता है शेष 
धारण रखना चाहिए धैर्य 
 ईश्वर साथ रहता है
 अनवरत हम सभी के 
भूल जाते हैं सुखों में उसे 
पानी पर खींचा हुआ
 लकीर है सुख केवल 
वहम पाले हुए हैं अनावश्यक
   नहीं रह जायेगा 
   नश्वर शरीर यह 
     ढह जायेगा
     रेत की यह 
'भित्ती'
भी एक दिन!
संपूर्णानंद मिश्र
प्रयागराज फूलपुर
7458994874

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