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लोकल ट्रेन


      मुंबई की लोकल
      ट्रेन के यात्रियों 
      की तरह जिओ 
      यहां लाखों लोग 
    ‌‌   सफ़र करते हैं
       रोज मिलते हैं
      रोज़  बिछुड़ते हैं 
       रोज़ धकियाए जाते हैं 
         ‌रोज़ रोते हैं 
          रोज़ टूटते हैं 
        रोज़ नक़ली हंसी हंसते हैं
       फिर अपने पांव
         चलने लगते  हैं
        लोकल ट्रेन से मुंबई के               
यात्रियों का गहरा रिश्ता है 
 उसकी भाषा भी खूब समझते हैं
   दोनों की चाल में एक      
समानुपातिक संबंध है 
गंतव्य तक पहुंचने के लिए
   दोनों प्रतिबद्ध है
  किसी बात का मलाल नहीं है
  किसी का बुरा हाल नहीं
   न गिला न शिकवा
     अपनी- अपनी 
  मस्ती में सब जी रहे हैं 
 दर्द भी अपना ही पी रहे हैं
 न किसी से कोई आशा
 न किसी से कोई निराशा
 यहां किसी से उम्मीद करना
  पानी पर लकीर खींचना है
  
संपूर्णानंद मिश्र
7458994874

Comments

  1. जीवन का शाश्वत चित्र।
    अभाव से घिरा,प्रेम की कमी का चित्र।

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