कल शिवरात्रि
का दिन था
मैं उपवास था
अपने सरकारी
आवास
पर था
एक बाल श्वान
कहीं से आकर
मेरे कमरे के
बाहर गुड़ियाए
पड़ा था
उसे ठंड
लग चुकी थी
पत्नी ने उसे
ठंड से
बचाना चाहा
उसे जिलाना चाहा
एक मोटे मजबूत
चादर में लपेट
दिया उसे
कुछ राहत मिली
लेकिन बारिश से
कुछ ठंड और बढ़ी
दो बिस्किट उसके
सामने रखा गया
उसने उसे नहीं खाया
बात ऐसी नहीं थी कि
उसे यह नहीं भाया
असहाय सा
मानवीय संवेदनाओं को
वह पढ़ रहा था
मनुष्यों के प्रति
अपना नज़रिया
गढ़ रहा था
ठंड में वह और भी
सिकुड़ रहा था
पांवों से पेट
ढंक रहा था
मैंने प्रयास किया
उसे जिलाने के लिए
रात की उस बारिश में
उसे एक अपने ही
सहकर्मी अध्यापक
के साथ उसे सुरक्षित
स्थान पर पहुंचाया
उसकी सारी क्रियाएं
निष्क्रिय हो चुकी थी
मन में मेरे उसके प्रति
बहुत वेदना थी
एक संवेदना थी
चाहकर भी मैं
कुछ नहीं कर
पा रहा था
केवल जी भर
देख पा रहा था
ओम नमः शिवाय का
केवल जाप कर
पा रहा था
मेरी इस भाव- भंगिमा
को वह बिल्कुल नहीं
देख पा रहा था
वहां से छोड़कर
मैं आ गया
मानवीय संवेदना
की लहरें मेरे हृदय
में उठ रही थीं
उसे एक बार फिर
मैं देखना चाहता था
तभी अकस्मात उसे
उसके माता-पिता
उसे ढूंढ़ रहे थे
अपनी भाषा में
मुझसे कुछ पूछ रहे थे
मैं सब जानता था
लेकिन उसकी भाषा
में मैं उसे नहीं
समझा पा रहा था
किसी तरह रात बीत गई
मैं एक उम्मीद
में सुबह
उसे देखने गया
पूरी तरह से
आज वह
निश्चेष्ट पड़ा था।।
रचनाकार -डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र स्नातकोत्तर शिक्षक हिंदी केन्द्रीय विद्यालय इफको फूलपुर इलाहाबाद (प्रयागराज) की अन्य कवितायें पढ़ें
का दिन था
मैं उपवास था
अपने सरकारी
आवास
पर था
एक बाल श्वान
कहीं से आकर
मेरे कमरे के
बाहर गुड़ियाए
पड़ा था
उसे ठंड
लग चुकी थी
पत्नी ने उसे
ठंड से
बचाना चाहा
उसे जिलाना चाहा
एक मोटे मजबूत
चादर में लपेट
दिया उसे
कुछ राहत मिली
लेकिन बारिश से
कुछ ठंड और बढ़ी
दो बिस्किट उसके
सामने रखा गया
उसने उसे नहीं खाया
बात ऐसी नहीं थी कि
उसे यह नहीं भाया
असहाय सा
मानवीय संवेदनाओं को
वह पढ़ रहा था
मनुष्यों के प्रति
अपना नज़रिया
गढ़ रहा था
ठंड में वह और भी
सिकुड़ रहा था
पांवों से पेट
ढंक रहा था
मैंने प्रयास किया
उसे जिलाने के लिए
रात की उस बारिश में
उसे एक अपने ही
सहकर्मी अध्यापक
के साथ उसे सुरक्षित
स्थान पर पहुंचाया
उसकी सारी क्रियाएं
निष्क्रिय हो चुकी थी
मन में मेरे उसके प्रति
बहुत वेदना थी
एक संवेदना थी
चाहकर भी मैं
कुछ नहीं कर
पा रहा था
केवल जी भर
देख पा रहा था
ओम नमः शिवाय का
केवल जाप कर
पा रहा था
मेरी इस भाव- भंगिमा
को वह बिल्कुल नहीं
देख पा रहा था
वहां से छोड़कर
मैं आ गया
मानवीय संवेदना
की लहरें मेरे हृदय
में उठ रही थीं
उसे एक बार फिर
मैं देखना चाहता था
तभी अकस्मात उसे
उसके माता-पिता
उसे ढूंढ़ रहे थे
अपनी भाषा में
मुझसे कुछ पूछ रहे थे
मैं सब जानता था
लेकिन उसकी भाषा
में मैं उसे नहीं
समझा पा रहा था
किसी तरह रात बीत गई
मैं एक उम्मीद
में सुबह
उसे देखने गया
पूरी तरह से
आज वह
निश्चेष्ट पड़ा था।।
रचनाकार -डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र स्नातकोत्तर शिक्षक हिंदी केन्द्रीय विद्यालय इफको फूलपुर इलाहाबाद (प्रयागराज) की अन्य कवितायें पढ़ें
बड़ी मर्मस्पर्शी कविता है सर। हम लोगो के आस-पास
ReplyDeleteबहुत से पशु-पक्षी तकलीफ में होते हैं।हम में से कुछ लोग उस तकलीफ के कारण होते हैं, कुछ देख कर भी कुछ नही करते, कुछ संवेदनशील लोग मदद की कोशिश करते हैं मगर जो लोग वाकई इन मासूम प्राणियों के लिए कुछ कर पाते हैं वही सच्चे मानव हैं।
आज का कड़वा सच यही है कि मनुष्य मनुष्य नही रहा, उसे पशु नही कहेंगे क्योकि पशु में भी मानवीय मूल्य होते हैं मगर मनुष्य क्या बन गया है पता नहीं।
बड़ी मर्मस्पर्शी कविता है सर। हम लोगो के आस-पास
ReplyDeleteबहुत से पशु-पक्षी तकलीफ में होते हैं।हम में से कुछ लोग उस तकलीफ के कारण होते हैं, कुछ देख कर भी कुछ नही करते, कुछ संवेदनशील लोग मदद की कोशिश करते हैं मगर जो लोग वाकई इन मासूम प्राणियों के लिए कुछ कर पाते हैं वही सच्चे मानव हैं।
आज का कड़वा सच यही है कि मनुष्य मनुष्य नही रहा, उसे पशु नही कहेंगे क्योकि पशु में भी मानवीय मूल्य होते हैं मगर मनुष्य क्या बन गया है पता नहीं।
Thanks sonaliji
DeleteThanks sonaliji
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteYes...it's a bitter truth that today's man has become free from sensation.
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