मैं मौन था
वह कौन था
चिंतन की मुद्रा में
बैठा मुझे
विचारों के
मकड़जाल में
फंसाया था
जब भी मैं
विश्वास की डोर को
मन के मजबूत
खूंटे में
बांधा हूं
तब- तब उसने
मन के खूंटे को
तोड़ाया है
उस कौन से
"मैं"
निरंतर संघर्षरत हूं
उसको आज
मैं रंगेहाथ
पकड़ना चाहता हूं
दो- दो हाथ
करना चाहता हूं
चारों तरफ़ पहरा
लगा दिया हूं
अब वह बचकर
नहीं जा सकता
मुझे अब नहीं
वह बांध सकता
सारी लीला उसकी
समझ गया हूं
उससे
जद्दोजहद करते- करते
अब मैं जीत के पथ
पर बढ़ चुका हूं
मैं मौन था
वह कौन था
अब उसे अच्छी तरह
समझ चुका हूं।।
डॉ सम्पूर्णानंद मिश्र जी की अन्य कविताएं पढ़ें
वह कौन था
चिंतन की मुद्रा में
बैठा मुझे
विचारों के
मकड़जाल में
फंसाया था
जब भी मैं
विश्वास की डोर को
मन के मजबूत
खूंटे में
बांधा हूं
तब- तब उसने
मन के खूंटे को
तोड़ाया है
उस कौन से
"मैं"
निरंतर संघर्षरत हूं
उसको आज
मैं रंगेहाथ
पकड़ना चाहता हूं
दो- दो हाथ
करना चाहता हूं
चारों तरफ़ पहरा
लगा दिया हूं
अब वह बचकर
नहीं जा सकता
मुझे अब नहीं
वह बांध सकता
सारी लीला उसकी
समझ गया हूं
उससे
जद्दोजहद करते- करते
अब मैं जीत के पथ
पर बढ़ चुका हूं
मैं मौन था
वह कौन था
अब उसे अच्छी तरह
समझ चुका हूं।।
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Nice poem sir.
ReplyDelete👍
ReplyDelete👍
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ReplyDeleteव्वाव,मस्त।
ReplyDeleteबहुत खूब!
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