नगर के व्यस्त
चौराहे पर
आज़ दुःख और सुख
दोनों लड़ गए
अपनी-अपनी
बात पर
अड़ गए
सुख ने कहा कि
किसी आदमी के
जीवन में आकर
मैं उसको संवार देता हूं
प्रतिष्ठा और हैसियत
का हार पहना देता हूं
वह आदमी कहलाने
लायक हो जाता है
अपनी ही नज़र में
वह सम्मानित हो
जाता है
उसे
अपने परिवार और
समाज का नायक बना देता हूं
सब मुझे चाहते हैं
और अपनाते हैं
तुम्हारी कोई इज्जत नहीं
तुम्हें
कोई चाहता नहीं
कभी कोई अपनाता नहीं
घर के सारे दरवाजे
तुम्हारे लिए बंद
हो जाते हैं
दबे पांव चोरों
की तरह आते हो
दुरदुराए जाते हो
भगाए जाते हो
लतियाए जाते हो
फिर भी लोगों की
जिंदगी में
आ जाते हो
सब मुझे पालते हैं
पोसते हैं
हृदय की आलमीरा
में बड़े जतन से रखते हैं !
दुःख ने कहा
तुमने जो कही है
बात बिल्कुल सही है
लेकिन हम दोनों में
एक बहुत बड़ा फर्क है
इसमें नहीं कोई तर्क है
कि जिसकी जिंदगी में
तुम्हारा प्रवेश हो जाता है
वह आदमी नहीं
संपूर्ण रूप से
राक्षस बन जाता है
मैं जिस व्यक्ति के
जीवन में आ जाता हूं
उसे जीना सिखा देता हूं
आदमी से आदमी बना देता हूं
मानवता की पूरी वर्णमाला
सिखा देता हूं
पाशविक प्रवृत्तियों की
दरिया से निकालकर
देवत्व के महासागर तक
पहुंचा देता हूं
तुम एक जन्म को
ही संवारते हो
मैं बिगड़े कई
जन्म सुधार देता हूं !
डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र स्नातकोत्तर शिक्षक हिंदी केन्द्रीय विद्यालय इफको फूलपुर इलाहाबाद ( प्रयागराज)
चौराहे पर
आज़ दुःख और सुख
दोनों लड़ गए
अपनी-अपनी
बात पर
अड़ गए
सुख ने कहा कि
किसी आदमी के
जीवन में आकर
मैं उसको संवार देता हूं
प्रतिष्ठा और हैसियत
का हार पहना देता हूं
वह आदमी कहलाने
लायक हो जाता है
अपनी ही नज़र में
वह सम्मानित हो
जाता है
उसे
अपने परिवार और
समाज का नायक बना देता हूं
सब मुझे चाहते हैं
और अपनाते हैं
तुम्हारी कोई इज्जत नहीं
तुम्हें
कोई चाहता नहीं
कभी कोई अपनाता नहीं
घर के सारे दरवाजे
तुम्हारे लिए बंद
हो जाते हैं
दबे पांव चोरों
की तरह आते हो
दुरदुराए जाते हो
भगाए जाते हो
लतियाए जाते हो
फिर भी लोगों की
जिंदगी में
आ जाते हो
सब मुझे पालते हैं
पोसते हैं
हृदय की आलमीरा
में बड़े जतन से रखते हैं !
दुःख ने कहा
तुमने जो कही है
बात बिल्कुल सही है
लेकिन हम दोनों में
एक बहुत बड़ा फर्क है
इसमें नहीं कोई तर्क है
कि जिसकी जिंदगी में
तुम्हारा प्रवेश हो जाता है
वह आदमी नहीं
संपूर्ण रूप से
राक्षस बन जाता है
मैं जिस व्यक्ति के
जीवन में आ जाता हूं
उसे जीना सिखा देता हूं
आदमी से आदमी बना देता हूं
मानवता की पूरी वर्णमाला
सिखा देता हूं
पाशविक प्रवृत्तियों की
दरिया से निकालकर
देवत्व के महासागर तक
पहुंचा देता हूं
तुम एक जन्म को
ही संवारते हो
मैं बिगड़े कई
जन्म सुधार देता हूं !
डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र स्नातकोत्तर शिक्षक हिंदी केन्द्रीय विद्यालय इफको फूलपुर इलाहाबाद ( प्रयागराज)
बहुत अच्छा लेख👌
ReplyDeleteअति सुंदर
ReplyDeleteVery true.
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