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#मुंबई का लोकल ट्रेन#

जीवन को‌ मुंंबई
के लोकल ट्रेन में सफ़र
करते हुए यात्रियों की
   तरह जिओ
रोज़ मिलते हैं ‌
रोज़ बिछुड़ते‌ हैं
रोज़ धक्के खाते हैं
रोज़ ‌रोते हैं
रोज़ हंसते हैं
रोज़ टूटते हैं
फिर ‌अपने पैरों पर
खड़ा होकर
चलने लगते हैं
लोकल ट्रेन से इनका
गहरा रिश्ता है
 उसकी भाषा
भी खूब समझते हैं
उसकी चाल ‌और मुंबई के
यात्रियों की चाल में एक ‌समानुपातिक संबंध है
दोनों अपने-अपने
   गंतव्य तक
पहुंचने के लिए ‌
  आबद्ध हैं
लेकिन किसी बात ‌
का‌‌ कोई मलाल‌ नहीं
किसी का कोई
 बुरा हाल नहीं
न कोई गिला न शिकवा
सब अपनी अपनी ‌
मस्ती में  जी रहे हैं‌
अपने ही दर्द को
   पी रहे हैं
अपना-अपना खा रहे हैं
अपना-अपना कमा रहे हैं
न किसी से ‌कोई आशा
न किसी से ‌कोई निराशा
यहां किसी ‌से‌ उम्मीद करना
पानी पर लकीर खींचना है
हम लोग अगर ऐसा ही
जीवन जीने लगेंगे
      तब
कभी हमें अपमान के‌ बिष नहीं
पीने पड़ेंगे


डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र स्नातकोत्तर शिक्षक हिंदी केन्द्रीय विद्यालय इफको फूलपुर इलाहाबाद ( प्रयागराज)

Comments

  1. Vart maan parivesh me jivan ki jhanki, behtareen👌👌👌👌

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  2. This is reality of present age.

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  3. 99% लोग मुंबई की लोकल ट्रैन की तरह ही जी रहे हैं। किसी की इच्छा का कम ही महत्त्व है। हो सकता है "यात्रा" के समय कुछ, कुछ यात्रियों की इच्छा के अनुसार हो वह मात्र संयोग होगा।

    ReplyDelete
  4. शाश्वत सत्य ।

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