कोसा जा रहा है
वक़्त
को इस समय
कि
ज़ालिम है
बेरहम
है
हस्ताक्षर
है
उजड़े
बियाबान का
सिंदूर
सिर्फ़ पोंछता है
मढ़
रहे हैं अनेक
आरोप-
प्रत्यारोप
नाप रहे हैं
इसके
शुतुरमुर्गी गर्दन को
फंदा
लेकर हाथ में
लटका
देंगे सूली पर
ज़मींदोज़
हो जायेगी
सारी
कहानी
गुनाह
फिर कैसे बोलेगा ?
अपना
मुंह खोलेगा
नहीं
देखना चाहता है
चेहरा
अपना
अपनी
आत्मा के शीशे में कोई
क्योंकि
विद्रूपता मुंह बिरा रही है
अतीत
के अध्याय पढ़वा रही है
बार-
बार चीख चिल्ला रही है
नदियों
में धोए पापों को गिनवा रही है
जब
अपने पर आ पड़ी है
समस्या
ड्योढ़ी पर खड़ी है
तो
प्रकृति याद आ पड़ी है
सम्पूर्णानंद
मिश्र
प्रयागराज
फूलपुर
7458994874
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