न जाने कितने अरसे से
दैहिक गाड़ी पर
भीतर के मरे हुए
जानवर को अपने
यूं ही ढोते रहे
हर बार उसको
फेंकते रहे सड़क पर
पर वह निर्लज्ज भी
बिल्कुल बेहया है
हर बार उग आता है
बिल्कुल नागफनी की तरह
और बढ़ते- बढ़ते
शरीर के एक कोने में
छोटा सा विषाक्त
नुकीला बाण चला जाता है
कितनी बार मरते हैं हम
और वह हर बार
ज़िंदा हो जाता है
यह युद्ध निरंतर चलता है
इसमें कौन कितनी बार मरा
कौन कितनी बार ज़िंदा रहा
हिसाब लगाना इसका
अपने बरौनी के
बालों को गिनने जैसा है
भीतर के जानवर को हांलांकि
मर जाना चाहिए
क्योंकि हमारे पास तो भाषा के नुकीले हथियार हैं
और उसकी गर्दन रेतने के लिए
बिल्कुल धारदार है
विजय होती है हर बार उसकी
क्योंकि वह
हमारी कमज़ोरी जानता है
साफ़- साफ़
शरीर के उस भाग
को पहचानता है
धारदार नुकीले सींग
वहीं गड़ाता है
जहां हमारी भाषा हमें मुंह चिढ़ाती है
और बार- बार धिक्कारती है
कि तुम्हारे भीतर का जानवर
तब तक ज़िंदा रहेगा
सही मायने में
जब तक भीतर बैठा तुम्हारे
हैवानियत का नाख़ून
पूर्णतः नहीं मरेगा
सम्पूर्णानंद मिश्र
प्रयागराज फूलपुर
7458994874
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