दीपावली केवल बाहर रोशनी जलाने का नाम नहीं, बल्कि अंतर को भी प्रज्ज्वलित करने का पर्व है। हमारी चेतना बाहर की ओर देखती है, अगर हम अंदर की ओर देखें तो कायाकल्प हो सकता है। अगर अंदर की रोशनी जल गई तो पूरा जीवन जगमग जगमग हो जाएगा। अपने अंतर में दीया जलाने की प्रक्रिया को ही ध्यान कहते हैं।
आपका पूरा जीवन जगमग जगमग हो ऐसी शुभकामनाएं ।
हमारी चेतना बाहर की तरफ देखती है। यह कुछ स्वाभाविक है। बच्चा पैदा होता है तो स्वाभाविक है कि पहले बाहर देखे। जैसे ही बच्चे का जन्म होता है तो वह आंख खोलेगा, बाहर का संसार दिखाई पड़ेगा। कान खुलेंगे, बाहर की ध्वनियां सुनाई पड़ेंगी। हाथ फैलाएगा, मां को छुएगा, स्पर्श करेगा, बाहर की यात्रा शुरू हो गई। फिर प्रतिपल की जरूरतें हैं। बच्चे को भूख लगेगी तो रोएगा। भूख भीतर तो भर नहीं सकती। बाहर से भरनी पड़ेगी। प्यास लगेगी तो रोएगा। पानी तो बाहर से मांगना पड़ेगा। भीतर तो कोई जल के स्रोत नहीं हैं। बाहर में धीरे-धीरे निमज्जित होता जाएगा। धीरे-धीरे बाहर ही सब कुछ हो जाएगा। भीतर की याद ही न आएगी। तुम भूल ही जाओगे कि तुम भी हो।
दो फकीर रास्ते से गुजरते थे। अचानक एक फकीर ने कहा कि सुना? अजान का समय हो गया। मस्जिद में अजान की आवाज आई। सांझ का वक्त उस दूसरे फकीर ने कहा, हैरान कर दिया तुमने। इस बाजार के कोलाहल में, जहां हजारों लोग भाव कर रहे हैं, चीजें बेच रहे हैं, चिल्ला रहे हैं, जहां कुछ समझ में नहीं आता, तुम्हें मस्जिद की अजान कैसे सुनाई पड़ी? उस दूसरे फकीर ने कहा, ‘जिस तरफ ध्यान लगा हो, वह कहीं भी सुनाई पड़ जाएगा।’ उसने कहा, ‘देख, तुझे मैं प्रत्यक्ष प्रमाण देता हूं।’ खीसे से एक रुपया निकाला, जोर से रास्ते पर पटका। खन की आवाज हुई। वे सब जो बड़ा शोरगुल मचा रहे थे, दुकानदार, ग्राहक, चिल्लाने वाले सब एकदम दौड़ पड़े। रुपया! उन सबका ध्यान, आवाज वे कहीं भी लगा रहे हों, लेकिन रुपये पर लगा है। उन्हें अजान सुनाई न पड़ी, जो कि रुपये की आवाज से बहुत तेज थी। रुपये की आवाज तत्क्षण सुनाई पड़ गई। वहां ध्यान लगा है। भीतर तो सतत रुपये की धुन चल रही है।
Where there is a will , there is a way
ReplyDeleteVery nice sir
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