परिवर्तनशील है यह संसार
यह ध्रुव सत्य है
नहीं है इसमें कोई संदेह
आज जो चल रहा है
कल बिल्कुल नहीं होगा
नहीं संकोच करती है
प्रकृति परिवर्तन में इसीलिए
संकोच की मुट्ठी खोल देती है
लुटाती है अपनी संपदा
दोनों हाथों से
जानती है कि
अंश है इसमें सबका
और जिसका है
उसको मिलना चाहिए
अपनी आत्मा पर कार्पण्य का बोझ नहीं ढो पाती है इसीलिए
बावजूद नहीं सीख पाता है
मनुष्य कुछ भी उससे
समा लेना चाहता है
समस्त सांसारिक वैभव
को अपने पेट की भरसांय में
गिद्ध दृष्टि रहती है दूसरे के हिस्सों में भी
जरायम की दुनिया
तक ले जाता है दूसरों के अंश
को निगलने का सपाट रास्ता
भयाक्रांत हो जाता है
परिवर्तन के
प्रभंजन से ही मनुष्य
नहीं सामना करना चाहता है
बदलाव के अंधड़ का
क्योंकि
वह जानता है कि
परिवर्तन की आंधी
उड़ा ले जाती
सब कुछ
पहुंचाती है
सबसे ज़्यादा चोट
अहंकार की थूनी को
संपूर्णानंद मिश्र
प्रयागराज फूलपुर
7458994874
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