भूखमरी, विवशता,
लाचारी की कील की चुभन
अपने भाग्य रूपी
मस्तक पर लिए हुए
पेट सहलाते हुए
पैरों में पड़े फफोलों को
अपनी नियति मानते हुए
माताएं
कोरोना- काल में जन्म लिए बच्चों
को दूध के बिना ही
अपनी छाती से लगाते हुए
इक्कीसवीं सदी का एक नया
हिंदुस्तान दिखाते हुए
सांत्वना के लिए दीवारों पर टंगे
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का
लाचार चित्र दिखाते हुए
जलाभाव में अपनी-अपनी
पीड़ा पीते हुए
खून के आंसू रोते हुए
उन सड़कों पर चल पड़े
खर आतप में जहां
अपना- अपना लहू बहाकर
हमारे देश के मज़दूरों ने उन
सड़कों- गलियों को दुल्हन की
तरह सजाया था
आज उन्हें क्या मिला?
एवज में
एक यक्ष प्रश्न खड़ा है
जो सड़कें श्रृंगार के समय
उनके कोमल हाथों के स्पर्श से
आनंदित होती थीं
मीठी-मीठी बातें बतियाती थीं
एक साथ जीने मरने
की सौगंध खाती थीं
एक दूसरे को निरंतर निहारती थी
आज उसने भी मुंह फेर लिया
मस्तक पर बेवफाई का कलंक
लगाकर सोलहों श्रृंगार कर
एक नया प्रेमी ढूंढ़ लिया
और राजधानी की यही दूल्हन
उन्हें रेलवे ट्रैक पर इस तरह
बेसहारा छोड़ दिया
संपूर्णानंद मिश्र
7458994975
mishrasampurna906@gmail.com
यथार्थ
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