यह प्रश्न
अंतहीन है
बार-बार
असंख्य बार
अनगिनत बार
अनंत बार
उत्तर की अपेक्षा में खड़ा है
न होली न दिवाली
न छठ न रामनवमी
न ईद न संक्रांति
असंख्य बिलखते बच्चे
भूख से छटपटाते हुए
नौनिहाल
मां के कलेजे से चिपके हुए
रोटी और प्याज की भी जुगत
न कर पाए पिता की
असहृय वेदना की आंखों में
शेष टिकी हुई अंतिम
आशाओं से अब भी
निवालों के लिए
अपलक निहार रहे हैं
महानगरों की मरती
संवेदनाओं की तराजू पर
ग़रीब गर्भवती गांव की महिलाएं
रोटी के टुकड़े के लिए
जोखी जा रही हैं
उधर पूंजीवाद के प्रतीक
अपनी- अपनी प्रिया के साथ
रनिवास में निद्रारत हैं
जिंदा रहने की
आखिरी उम्मीद लिए
यह सर्वहारा वर्ग
स्वयं बैल बनकर
अपनी-अपनी गृहस्थी
उस पर लादे
हिंदुस्तान की दूरियों को
अपने हौसले एवं पुरुषार्थ की बांहों में समेटे राजपथ से गांव की ओर जा रहा है ।
संपूर्णानंद मिश्र
7458994874
mishrasampurna906@gmail.com
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