आजकल रिश्ता
ठंडा हो गया है
इसमें
स्वार्थ व अज्ञानता की
बर्फ़ घुल गयी है
अब आंच नहीं
पहले जैसी
इसलिए स्वाभाविक
गुण- धर्म भी नष्ट हो गया
न जाने ऐसा क्यों है ?
मंद पड़ गया है
अब चूल्हा भी
नहीं भभकता है तेज़
अब रोटियां भी नहीं
पक पाती है भीतर से
कच्ची रह जाती हैं
अस्वाद्य हो जाती हैं
किस स्रोत से आयेगी
फिर वह गरमाहट !
संबंधों के पात झड़ रहे हैं
डाल भी सूख रहे हैं
कोयल भी निराश है
कू- कू करने के लिए
बहुत परेशान है
कहीं आश्रय नहीं
किसकी पूजा करे
सब संक्रामक हैं
क्वैरेंटाइन हैं
लाकडाउन में हैं
राम और शिव भी
अवकाश पर हैं
फ्राम होम वर्क कर रहे हैं
केवल नौकरी जिला रहे हैं
अपनी-अपनी
औपचारिकता
निभा रहे हैं
होते भी तो क्या करते
शिक़ायत- पत्र लिखवा लेते
ठंडे बस्ते में डलवा देते
धीरे-धीरे दीमक
सारी समस्याओं
को ही चाट डालती!
इतने से भी बात नहीं बनती
तो
एक महीने बाद
आने के लिए कहते
फिर सरकारी
फ़रमान जारी करवा देते
जरूरत पड़ने पर
लाठी चार्ज भी करवा देते।
प्रगतिशीलता के गर्भ में है
यह देश है इसीलिए !
प्रसूत होकर बाहर
आना ही नहीं चाहता
भयाक्रांत है
बाहर निकलकर
किससे- किससे युद्ध करेगा
यहां अनंत मायाबी मारीच हैं
राम को
दूर तलक दौड़ाएंगे
और फिर स्वर्ण- हिरन के
व्यामोह में एक और
सीता हर जायेगी!
डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र
प्रयागराज (फूलपुर)
7458994874
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बहुत सटिक विचार,सुंदर कविता।
ReplyDeleteHeart touching
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