एक छोटे से
वायरस ने सीखा दिया
घरों में रहना सबको
अपने चेहरे की धूल
शताधिक वर्षों से
नहीं पोंछ पाए थे लोग
संग्रह करते आये थे
अपनी पशुता को
विग्रह में विश्वास नहीं था
क्योंकि इसमें ज़ाहिर हो रही थी
अपनी- अपनी कमजोरियां
हिल उठी थी
दर्प की गहरी जड़ें
इस व्यापार में उन्हें नफे की जगह नुकसान दिखाई दे रहा था
हिंसा का जब
पहला हथौड़ा मानव ने
चलाया था प्रकृति पर
तब आत्मा ने रोका था उन्हें
अनसुनी कर दी उस आवाज़ को
क्योंकि अपनी मर्दानगी पर
साफ - साफ
ख़तरे की घंटी सुनाई पड़ रही थी
अस्मिता का खूंटा उखड़ता
दिखाई दे रहा था
इसलिए इस परिधान के उतरन
पर मनुष्य बिल्कुल
डरा डरा सा था
सहमा- सहमा सा था
इस सभ्यता के विकास- पथ पर
सुदूर निकल पड़ा था
अब वहां से पीछे लौटना
अपने पैरों में गुलामी की
बेड़ियां पहनाना था
हैवानियत को ढोते- ढोते
अपने कद को लोगों ने कुंभकर्ण सदृश विशालकाय बना लिया था
कम आकार में उन्हें
घुटन महसूस हो रही थी
नहीं जी सकते थे कमठ की तरह
क्योंकि
ईश्वर से ऊंचा झंडा
धरती पर उगा आये थे
इस आत्ममुग्धता के
लिबास को उतार पाना
अपने को नपुंसक बनाना था
एक छोटे से वायरस ने
पनप आए बड़े- बड़े मनुष्यों के नाखूनों को कुतर- कुतर कर
असभ्यता एवं पशुता से
मुक्त होने का
प्रमाण-पत्र प्रदान कर डाला
एवं जड़ता का गला
सदा-सदा के लिए घोंट डाला
क्योंकि जड़ता के
मरने का अर्थ मनुष्यता को
फिर से जिंदा करना है ।
सम्पूर्णानंद मिश्र
प्रयागराज (फूलपुर)
🙏
ReplyDeleteसटीक पंक्तियां
True
ReplyDeleteसुन्दर और समसामयिक पंक्तियां।
ReplyDeleteसुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता, वास्तविक वर्णन, आँखों में अंजन भरती कविता,
ReplyDeleteजागो ए इन्सान,अब तो आडंबर छोडो, संस्कृती की जय कहकर,परायी बातों को फूँक डालो।