जड़ से कटा मनुष्य
अपनी शिनाख़्त मिटा देता है
लूट लिया जाता है
उसके स्वप्नों को
जांगर को
निर्ममता और
नृशंसता की भट्ठी में
झोंक दिया जाता है
सदा-सदा के लिए
नए जीवन
की गुहार लगाता है
पथरायी आंखों
की दरिया में
बापू के सपनों की नाव
उम्मीदों की सिर्फ़
एक किरणों के सहारे
चलाना चाहता है
बेटियों सदृश दिखती
लंबी भयानक
ग़रीबी की रात से
छुटकारा पाना चाहता है
लेकिन उसकी
उम्मीदों का गला
रेत दिया जाता है
कराहने गिड़गिड़ाने
चिरौरी करने के बाद भी
किसी गटर में
उसके अरमानों को
फ़ेंक दिया जाता है
मजबूर वह मानव
रेंगते हुए
अपनी पीड़ा को
शांत भाव से पीते हुए
पैरों से चू रहे मवादों को
अपने निलय नि:सृत आंसुओं से
प्रक्षालित करते हुए
बापू की स्मृतियों को
आंखों के कैमरे में कैद करते हुए
अपनी गृहस्थी का भार समेटे हुए
किसी दैवीय चमत्कार की
आशा में खड़ी
प्रसवंती लुगाई का हाथ थामे
टूटे हुए मन से खड़ा होता है
अपने गांव आता है
और शाखा बनकर
फिर अपने जड़ों से
जुड़ जाना चाहता है
क्योंकि जड़ कटा मनुष्य
अपनी शिनाख़्त मिटा देता है!
संपूर्णानंद मिश्र
प्रयागराज (फूलपुर)
7458994874
बढिया कविता!
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