जड़ों को सींचना भूल गए
आज़ इस कदर पहुंच गए
अगर अपनी मिट्टी
को न छेड़े होते
तो आज यह हश्र न होते
जब प्रकृति को रुलाए थे
उसकी आंखों से मोती चुवाए थे
तब इसे उपलब्धि मान बैठे थे
कांक्रीट के जंगल उगा
कर बहुत ऐंठे थे
अपनी इस सफलता
पर फूले न समाते थे
प्रकृति के रमणीय रूप
तुमको कभी न भाते थे
कितने शावकों का घर
तुमने छीन लिया
उन्हें माता-पिता
विहिन कर दिया
गगनचुंबी इमारतों में बैठे तुम
अपनी प्रिया के क्रोड
में रसगुल्ले खा रहे थे
और ये निर्दोष मासूम
दूध के लिए तरस रहे थे
आज जब उसकी
कीमत चुकानी पड़ी है
तब अपनी-अपनी आ पड़ी है
उसने एक कोरोना- अस्त्र
चलाया है अभी
तब तुम घरों में जाकर
दुबक गए !
डॉ०सम्पूर्णानंद मिश्र
7458994874
email.
mishrasampurna906@gmail.com
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