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औपचारिकता बनाम होली

होली आती है
चली जाती
वैमनस्यता पर
होली का रंग
चढ़ता ही नहीं है
अपने भीतर के
मलाल से
लोगों ने भाई- चारे
के गुलाल को धो दिया है
अब भाभी देवर
दोनों के रिश्ते ‌में
हंसी- ठिठोली
की मिठास
कहां रह गई है !
अब होली में
निरहुआ भाभी की
चिकोटी के बिना
ही रह जाता है
हर भाभियां भी आज
निरहुआ  से डरी हुई हैं‌
रंग पुतवाए बिना ही पड़ी हुई हैं
बस औपचारिकता ही
शेष रह गई है
टूटे हुए संबंध
होली का पड़ाव
भी पार कर जाते हैं
होलिका हर साल
जल जाती‌ है
लेकिन कटुता बच‌ जाती है
अपने विजयी होने पर
दंभ भरकर भाई- चारे
को चिढ़ाती है मुंह बिराती है
यह एक यक्ष प्रश्न खड़ा है
मेरे सामने पूरी तरह
से निरुत्तर पड़ा है
आज के दिन नफ़रत के
उरग का‌ फन मिलकर
सबको कुचलना ‌होगा
उसकी सत्ता- समाप्ति के लिए
किसी न किसी को
गरल पीना होगा
सौहार्द को गले लगाना होगा
और होली ‌में सद्भावों
का रसपान कराना होगा
नहीं तो होली हो ली
ही रह जायेगी !

डॉ०  सम्पूर्णानंद मिश्र जी की अन्य कविताएं पढ़ें

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