यह कैसा दौर है कि
लोग अब किसी को
गले लगाते ही नहीं
लोगों के गांधी- विचार भी
अब उन्हें भाते नहीं!
मन की गांठों
की दीवारों पर
अंबुजा सीमेंट चढ़ा है
आदमी आदमी की
नज़र में ही गड़ा है
भावनाएं अब दफ़न हो गयी हैं
अंत:अजिर में भी
कई दीवारें खड़ी हो गईं हैं
आज बस एक दूसरे को ताकते हैं
अनवरत उनके निजी जीवन
में झांकते हैं
आज लोग एक दूसरे के
व्रणों को हरा कर देना चाहते हैं
उसके हंसमुख चेहरे पर गंदगी
का कोलतार फेंक देना चाहते हैं
यह कैसा दौर है कि
लोग अब किसी को
गले लगाते ही नहीं
प्रेम के ढाई अक्षर की
दो बूंद अब पिलाते नहींं !
आज कोई किसी का
यार नहीं
किसी के जज़्बात को समझने के लिए तैयार नहीं !
यह कैसा दौर है
आज सब बहम में
जी रहे हैं
अपमान का विष
निरंतर पी रहे हैं
प्रेम की किताबों पर
नफ़रती स्याही पोत दी गई है
सबसे विचित्र बात तो यह है कि
पढ़कर भी आदमी निपढ़ा है
आज यह जीव अपने
ही कुविचारों के दलदल में
धंसता जा रहा है
समय असमय अपने को ही
डंसता जा रहा है ।।
Bahut behtareen. 🙏🙏🙏
ReplyDeleteVery nice lines sir
ReplyDeleteकविता में दर्द है, सच्चाई है ,लेकिन ये सच्चाई हर दौर में रही है बस अनुपात बदलता रहता है ।
ReplyDeleteBehtarin Kavita
ReplyDeleteNice poem Sir
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन सर
ReplyDeleteYou brilliantly portray real truth of life
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