बचपन से ही
चाह पाले हुए था
वह
ऊंची सीढ़ियों पर चढ़ने का
चढ़ता गया
फिसलता गया
गिरता भी गया
लेकिन इतना गिरेगा
इसका मुझे आभास
था ही नहीं
गिरते- गिरते
फिर चढ़ते- चढते
छल को ही उसने
अपना साथी बनाया
उससे दोस्ती का हाथ मिलाया
एक ऐसे साथी को पाकर
छल भी बहुत खुश था
फिर एक दिन छल भी
छल द्वारा ही छला गया
और वह छल की सीढ़ियों पर
चलकर आज एक बड़े
मुकाम पर पहुंच गया ।
रचनाकार - डॉ सम्पूर्णानंद मिश्र जी की अन्य कविताएं पढें
चाह पाले हुए था
वह
ऊंची सीढ़ियों पर चढ़ने का
चढ़ता गया
फिसलता गया
गिरता भी गया
लेकिन इतना गिरेगा
इसका मुझे आभास
था ही नहीं
गिरते- गिरते
फिर चढ़ते- चढते
छल को ही उसने
अपना साथी बनाया
उससे दोस्ती का हाथ मिलाया
एक ऐसे साथी को पाकर
छल भी बहुत खुश था
फिर एक दिन छल भी
छल द्वारा ही छला गया
और वह छल की सीढ़ियों पर
चलकर आज एक बड़े
मुकाम पर पहुंच गया ।
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भावनिक, उत्कट अभिव्यक्ति।व्वा रे आदमी, तु तो छल को मित्र बनाकर,उसे भी छल गया, विकास पथ पर चलता गया। वंदन हो तुझे।
ReplyDeleteउत्तम
ReplyDeleteउत्तम
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