दीपावली पर साफ-सफाई पर बहुत जोर रहता है। बाहर की साफ-सफाई हमारे शरीर के लिए उपयोगी है। इससे हम अधिक स्वस्थ भी रह सकते हैं। लेकिन कुल मिलाकर ये सब बस बाहर-बाहर की ही बातें हैं। एक सफाई स्वयं के भीतर की भी होती है। हमारे मन में भी बहुत कुछ दमित भावनाएं, विचार और आवेग होते हैं। हमने जो सभ्यता-संस्कृति विकसित की है, उसमें हम अपनी भावनाओं को, विचारों को, अपनी नैसर्गिक प्रवृत्तियों को सहजता से व्यक्त नहीं कर पाते। हमारा व्यवहार एक मर्यादा या एक सीमा में बंधा होता है। सभ्यता का एक तकाजा होता है जिसके कारण कुछ चीजें हम प्रकट कर पाते हैं, कुछ नहीं कर पाते। परिणामस्वरूप, हमें औपचारिक होना पड़ता है।एटिकेट्स और मैनर्स ऐसी ही औपचारिकताएं हैं जिनके सहारे हम जीते हैं। मसलन, जब भी क्रोध उत्पन्न होता है, हमारे भीतर एक तीव्र आवेग उत्पन्न होता है। उसकी प्रतिक्रिया के तौर पर हम बहुत कुछ करना चाहते हैं, लेकिन कर नहीं पाते। इन बंधनों से कृत्रिम व्यवस्था तो बनी रहती है, लेकिन इससे हमारे सहज आवेग समाप्त नहीं हो जाते। हम जिन भी नकारात्मक चीजों को express नहीं कर सकते, वे हमारे भीतर suppress होती जाती हैं, हमारे अवचेतन का हिस्सा बनती जाती हैं।हमारा अवचेतन मन ऐसे ही कूड़े-कचरे का ढेर है। इसकी भी सफाई जरूरी है। घर और आसपास की सफाई भी हो, लेकिन उससे कहीं ज्यादा जरूरी है- अपनी मानसिक और भावनात्मक सफाई। ध्यान विधियां इन्हीं से मुक्ति के उपाय हैं। इनके अभ्यास के बाद आपके भीतर भी एक दीपावली हो सकेगी और वही असली दिवाली होगी। बाहर तो हमें रोशनी के लिए दीया जलाने का प्रयास करना पड़ता है लेकिन भीतर आपको कुछ जलाना नहीं पड़ेगा। जब आपके भीतर का कूड़ा-कबाड़ बाहर निकल जाएगा फिर आप पाएंगे कि भीतर एक अद्भुत, सूक्ष्म प्रकाश फैला हुआ है।
संतों ने इसे ही ‘बिन बाती और बिन तेल, दीया जले अगम का’ कहा है। इसमें कोई तेल या बाती नहीं है। वह सनातन से जल ही रहा है। वह कभी बुझता नहीं। तेल और बाती का दीया चाहे कितना ही बड़ा हो, वह एक दिन जला था, एक दिन बुझ ही जाएगा। जितना तेल होता है, बाती उतनी ही जलती है।
वैज्ञानिक तो यहां तक कहते हैं कि कुछ अरब वर्ष बाद यह सूरज भी बुझ जाएगा, क्योंकि उसके भीतर प्रति सेकेंड, लगातार परमाणु विस्फोट हो रहे हैं। जो परमाणु आज सूरज का ईंधन बने हुए हैं, ऊर्जा या गर्मी बनकर लगातार फैलते जा रहे हैं, नष्ट होते जा रहे हैं। जिस दिन वह ईंधन चुक जाएगा, उस दिन सूरज भी बुझ जाएगा। वस्तुतः, जो भी चीज ईंधन से चल रही है, देर-सबेर उसे बुझना ही है। लेकिन ध्यान में डूबकर, शांत होकर हम एक ऐसे प्रकाश को जानते हैं जो न कभी जलना शुरू हुआ और न कभी बुझेगा। असली दीवाली वही है।
पर्व-त्योहारों के प्रतीकार्थ समझिए। रावण पर विजय के पश्चात राम के लौटने का अर्थ है- अपने दुर्गुणों पर विजय और अपने अंतस की ओर प्रस्थान। आपके दुर्गुण आपके शत्रु हैं और आपका अंतस आपकी अयोध्या है। असली दीवाली जब भी होगी, अपने भीतर ही होगी। अंतस की साफ-सफाई होते ही उस अखंड दीप के जलने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। बाहर की स्वच्छता भीतर की इस यात्रा में अवश्य ही सहायक है। हर दीपावली बाहर-भीतर दोनों की सफाई का एक सुंदर आह्वान है।
स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती
*सत्याधारस्तपस्तैलं दयावर्ति: क्षमाशिखा *।
ReplyDelete*अंधकारे प्रवेष्टव्ये दीपो यत्नेन वार्यताम् ॥*
*घना अंधकार फैल रहा हो, ऑंधी सिर पर बह रही हो� तो हम जो दिया जलाएं, उसकी दीवट सत्य की हो, उसमें तेल तप का हो, उसकी बत्ती दया की हो और लौ क्षमा की हो। आज समाज में फैले अंधकार को नष्ट करने के लिए ऐसा ही दीप प्रज्जवलित करने की आवश्यकता है।*
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