देखो एक बड़े राज की बात है कि मन का भोजन है विचार।  मन को जीवित रहने के लिए विचार चाहिए ही।  निर्विचार मन नाम की कोई चीज होती ही नहीं।  निर्विचार की स्थिति में मन होता ही नहीं।  विचार दो में से एक का ही होता है,  या तो अतीत की स्मृति,  या भविष्य की कामना।  कामना के लिए भविष्य चाहिए ही,  यों हर इच्छा मन को भविष्य में ले जाती है।  इससे मन को और जीने का आश्वासन हो जाता है।  मन कहता है,  कर लेंगे,  अभी क्या जल्दी है,  बस यह एक इच्छा पूरी हो जाए,  फिर मैं शांत हो जाऊंगा।  पर उसका तो काम ही झूठ बोलना है,  असली बात तो यह है कि इच्छा की पूर्ति से  इच्छा की निवृत्ति कभी होती ही नहीं, वरन्-  "तृष्णा अधिक अधिक अधिकाई"  इच्छाएँ बढ़तीं ही हैं।  जितनी जितनी मन की इच्छा पूरी करते जाएँगे,  मन उतना ही और और इच्छाएँ करता चलेगा,  इसे अ-मन करना और और कठिन हो जायेगा।  पहला ही कदम गलत उठा कि वापस लौटना और कठिन हुआ। पहली ही इच्छा पर मन की चालबाज़ी को पहचान कर,  मन को डाँट कर रोक देने वाले को,  मन सरलता से काबू हो जाता है।  क्या आप नहीं जानते कि रोग,  अवगुण,  आदत और साँप से छोटे होते हुए ही,  छुटक...