पाठ योजना
कक्षा
– बारह्बीं
विषय- हिंदी
पाठ- भक्तिन
पाठ
का संक्षिप्त परिचय –
महादेवी के रेखाचित्रों से सम्बंधित महत्त्वपूर्ण
संग्रह ‘स्मृति की रेखाएं’ में संकलित पहले ही रेखाचित्र भक्तिन में महादेवी वर्मा ने भक्तिन के
माध्यम से एक ऐसी स्त्री की व्यथा-कथा कही है जो जन्म से ही अपार वेदना, उपेक्षा, अभाव और कष्टों को सहती आई है, किन्तु इन सबके सामने कभी आत्मसमर्पण नहीं किया। इस पहले ही
रेखाचित्र में उन्होंने भक्तिन के अतीत और वर्तमान का बहुत ही दिलचस्प और
प्रभावशाली खाका खींचा है। महादेवी के अधिकांश रेखाचित्रों में निम्नवर्गीय चरित्र
की समस्या और उसकी चिंताओं की ही अभिव्यक्ति हुई है। भक्तिन के सन्दर्भ में भी ऐसा
ही कहना उपयुक्त होगा। महादेवी के घर में काम शुरू करने से पहले और महादेवी के साथ
जीवन जीते हुए भक्तिन के सन्दर्भ में, उसके व्यक्तित्व की
विशेषताओं और कमजोरियों के सन्दर्भ में अनेक रोचक पहलुओं से पाठकों को बड़ी ही
मार्मिकता और रोचकता के साथ प्रस्तुत करने में महादेवी को अपार सफलता मिली है।
परिस्थितिवश अक्खड़ बन चुकी भक्तिन के बहाने स्त्री जीवन से सम्बंधित विभिन्न
सामाजिक रुढियों, विषमताओं, विद्रुपताओं और अन्याय की
ओर भी न केवल ध्यान खींचा है बल्कि पाठकों को कई बार सोचने के लिए मजबूर करने और
झकझोरने का काम भी किया है। इसके साथ ही भक्तिन महादेवी के जीवन में आकर छा
जाने वाली एक ऐसी परिस्थिति के रूप में सामने आती है जिसने महादेवी के
व्यक्तित्व के कई आयाम उद्घाटित किये, उनके व्यक्तित्व और जीवन
में कई परिवर्तन लाने का काम किया। भक्तिन के साथ महादेवी का सम्बन्ध इतना गहरा था
कि वह भक्तिन को अपने व्यक्तित्व और जीवन का जरुरी अंश मानकर उसे खोना नहीं चाहती
थीं।
कविता की भांति रेखाचित्रों
में भी महादेवी ने अपने को केंद्र में रखते हुए कतिपय पात्रों और समस्याओं की
प्रस्तुति की है। महादेवी वर्मा के रेखाचित्र तो अन्यों के अपेक्षा कहीं अधिक
स्वमुखर है। भक्तिन के प्रारंभिक पंक्तियों को ही देखें, जिसमें भक्तिन का परिचय दिया गया है तो पता चलता है कि यह किस हद तक
लेखिका सापेक्ष है –
“
जब कोई जिज्ञासु उससे इस
सम्बन्ध में प्रश्न कर बैठता है, ता वह पलकों को आधी पुतलियों तक गिराकर और चिंतन की मुद्रा में
ठुड्डी को कुछ ऊपर उठाकर विश्वास भरे कंठ से उत्तर देती है – ‘ तुम पचै का बताई –
यहै पचास बरिस से संग रहित है।‘ इस हिसाब से मैं पचहत्तर की ठहरती हूँ और वह सौ
वर्ष की आयु भी पार कर जाती है, इसका भक्तिन को पता नहीं। पता हो भी, तो संभवतः वह मेरे साथ बीते हुए समय में रत्ती भर भी कम नहीं करना
चाहेगी। मुझे तो विश्वास होता जा रहा है कि कुछ वर्ष और बीत जाने पर वह मेरे साथ
रहने के समय को खींचकर सौ वर्ष तक पहुंचा देगी, चाहे उसके हिसाब से मुझे 150 वर्ष की असंभव आयु का भार क्यों न ढोना पड़े।”
भक्तिन का चित्र और चरित्र अपनी
विविध अर्थछवियों से युक्त और सारगर्भित है। ग्रामीण संस्कृति और ग्रामीण नारी की
प्रतीक भक्तिन के माध्यम से महादेवी ने ग्रामीण परिवेश, मान्यताओं, रुढियों, ग्रामीण समाज की
प्रतिद्वन्द्विताओं, शोषण, स्वार्थपरकता आदि से
सम्बंधित सूक्ष्म से सूक्ष्म प्रक्रियाओं और पारिवारिक संघर्ष के विविध रूपों का
ऐसा सटीक प्रस्तुतीकरण किया है कि सारा परिवेश जीवंत हो उठा है। व्यंग्यात्मक शैली
में खींचे गए इन चित्रों का एक उदहारण देखिये –
“
पांच वर्ष की वय में उसे
हंडिया ग्राम के एक गोपालक की सबसे छोटी पुत्रवधू बनाकर पिता ने शास्त्र से दो पग
आगे रहने की ख्याति कमाई और नौ वर्षीया युवती का गौना देकर विमाता ने बिना मांगे
पराया धन लौटाने वाले महाजन का पुण्य लूटा।
पिता का उस पर अगाध प्रेम
होने के कारण स्वभावतः ईर्ष्यालु और संपत्ति की रक्षा में सतर्क विमाता ने उनके
मरणान्तक रोग का समाचार तब भेजा, जब वह मृत्यु की सूचना बन चुका था। रोने पीटने के अपशकुन से बचने के
लिए सास ने भी उसे कुछ न बताया। बहुत दिनों से नैहर नहीं गई, सो जाकर देख आवे, यही कहकर और पहना-उढ़ाकर सास ने उसे विदा कर दिया। इस अप्रत्याशित
अनुग्रह ने उनके पैरों में जो पंख लगा दिए थे, वे गाँव की सीमा में पहुंचते ही झड गए। ‘हाय लछमिन अब आई’ की अस्पष्ट
सहानुभूतिपूर्ण दृष्टियाँ उसे घर तक ठेल ले गईं। पर वहां न पिता का चिन्ह शेष था, न विमाता के व्यवहार में शिष्टाचार का लेश था। दुःख से शिथिल और
अपमान से जलती हुई वह उस घर में पानी भी बिना पिए उल्टे पैरों ससुराल लौट पडी। सास
को खरी-खोटी सुनकर विमाता पर आया हुआ क्रोध शांत किया और पति के ऊपर गहने
फेंक-फेंक कर उसने पिता के चिर वियोग की मर्म व्यथा व्यक्त की।”
भक्तिन की जीवन गाथा बड़ी ही
रोचक और मार्मिक है। बचपन में ही माँ स्वर्ग सिधार गई, विमाता ने भी कष्ट और दुत्कार ही दिया, अल्प आयु में ही विवाह बंधन
में बाँध दिया गया, पिता भी दुनिया से चले गए और पति ने भी बिना पुत्र
के ही साथ छोड़ दिया। लोभ लालच वश अनेक युवकों ने उसे वैधव्य से मुक्त कर उसके
वैधव्य को सौभाग्य में बदलना चाहा किन्तु हठ की हठी वह ‘लछमिन’ अपनी ही धुन की पक्की थी। बड़ी लड़की विधवा हो गयी और छोटी लडकी को
अन्यायपूर्वक गाँव वालों की धूर्तता और पंचायत में एकतरफा फैसले के आधार पर
कलंकपूर्ण वातावरण में एक नशेबाज नाकारा के साथ ब्याह दिया गया। ख़राब आर्थिक
स्थिति में फंसकर अंततः भक्तिन को लेखिका की सेविका बनकर कार्य करना पड़ा। भक्तिन
सामंती संस्कारों और विचारों से युक्त होते हुए भी सभी मानवीय संवेदनाओं से युक्त
दिखाई गयी है। वह सेवा भाव से पूर्ण नारी है जो छुआछूत के भय से अपना खाना बनाकर
पहले ही उपर रख देती है पर फिर भी उसके बाद दिन भर होस्टल की लड़कियों की सेवा में
जुटी रहती है। अपने मालकिन की सेवा में भी उसने खुद को पूरी तरह से समर्पित कर रखा
है। पूरे तन, मन, धन और बुद्धि-विवेक के साथ
रात दिन लेखिका की सेवा में संलग्न रहती है। उसकी इस सेवा भावना और सेवा भक्ति की
हनुमान से तुलना करते हुए लेखिका ने बड़ी ही आत्मीयता के साथ कागज पर इस तरह से
उतारा है कि वह सर्वत्र अपने परिवेश के साथ घूमती-फिरती दिखाई देती है। भक्तिन की
सेवा भावना का वर्णन लेखिका इतनी आत्मीयता से करती है की उसके दोष में भी वह गुण
ही देखती और बताती है।
भक्तिन का चरित्र चित्रण
बड़े ही सुन्दर ढंग से लेखिका ने किया है। एक क्रमिक कथा के रूप में उसके चरित्र को
सामने लाने के स्थान पर लेखिका ने कुछेक घटनाओं और भाव-बिम्बों को संघटित करते हुए
उसे पूरे प्रभाव और गहराई के साथ उभारने का प्रयास किया है। इन बिम्बों को सुन्दर, आकर्षक और मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करने के लिए लेखिका ने व्यंग्य का
भरपूर सहारा लिया है। महादेवी वर्मा ने अपने पात्रों की सृष्टि में परंपरागत तौर
तरीके से इतर भिन्न युक्तियों का सहारा लिया है जो अत्यंत ही व्यंजक है। सारी रूप
रेखाओं को एक स्थान पर संग्रहित करके उसे निरी गद्यात्मक स्थिति प्रदान करने की
जगह रंग और रेखा के एक-एक कोण को अन्य व्यक्तियों एवं सामाजिक परिवेश के सन्दर्भ
में रखकर तोलती हुई उसे ऐसा तुलनात्मक रूप देती है कि उनका पात्र अपनी निजता में
भी सजीवता ग्रहण कर जाता है। भक्तिन की आकृति को शब्द-रूप देते हुए महादेवी लिखती
हैं –
“
घुटी हुई चाँद को मोटी मैली
धोती से ढांके और मानो सब प्रकार की आहट सुनने के लिए एक कान कपडे से बाहर निकाले
हुए भक्तिन जब मेरे यहाँ सेवक-धर्म में दीक्षित हुई तब उसके जीवन के चौथे और अंतिम
परिच्छेद का जो अथ हुआ,
उसकी इति अभी दूर है।”
बाह्य आकृति के साथ-साथ
भावलोक को उद्घाटित करना भी किसी के चरित्र को उभारने के लिए आवश्यक है। लेखिका ने ‘स्मृति की रेखाएं’ के दूसरे चरित्रों की भाँति ही भक्तिन का चरित्र चित्रण करते हुए भी
उसके स्वभाव को इतिवृतात्मक ढंग से कहने के स्थान पर उसकी वर्गीय, सामाजिक विशेषताओं का भी पर्याप्त ध्यान रखा और उसी परिप्रेक्ष्य में
उसके स्वभावगत विशेषताओं को भी प्रस्तुत किया। पात्रों के स्वभाव में परस्पर
विरोधी गुण-दोषों को समन्वित करते हुए लेखिका ने भक्तिन जैसे चरित्र को अद्भुत
अमरता प्रदान की है। उसके असत्य भाषण की प्रवृति, छोटी-मोटी चोरी के पीछे
उसकी कार्यशील भावना को अपनी प्रभावी व्यंग्यात्मक शैली में उन्होंने इस प्रकार
प्रस्तुत किया है कि भक्तिन के चरित्र का अन्तः पक्ष पूरे प्रभाव के साथ उद्घाटित
हो गया है –
“
वह सत्यवादी हरिश्चंद्र
नहीं बन सकती; पर ‘नरो वा कुंजरो वा’ कहने
में भी विश्वास नहीं करती। मेरे इधर-उधर पड़े पैसे-रूपये, भण्डार-घर की किसी मटकी में कैसे अन्तर्निहित हो जाते हैं, यह रहस्य भी भक्तिन जानती है। पर इस सम्बन्ध में किसी के संकेत करते
ही वह शास्त्रार्थ के लिए ऐसी चुनौती दे डालती है, जिसको स्वीकार कर लेना किसी तर्क-शिरोमणि के लिए भी संभव नहीं। यह
उसका अपना घर ठहरा – पैसा-रुपया जो इधर-उधर पड़ा देखा, संभालकर रख लिया। यह क्या चोरी है? उसके जीवन का परम कर्त्तव्य मुझे प्रसन्न रखना है – जिस बात से मुझे
क्रोध आ सकता है, उसे बदलकर इधर-उधर करके
बताना क्या झूठ है? इतनी चोरी और इतना झूठ तो
धर्मराज महाराज में भी होगा, नहीं तो भगवान् जी को कैसे प्रसन्न रख सकते और संसार को कैसे चला
सकते?”
महादेवी वर्मा ने इन
चित्रों को खींचते हुए सामाजिक वैषम्य और शोषण प्रक्रिया तथा उससे उत्पन्न
वैचित्र्य को बड़े ही सार्थक ढंग से प्रस्तुत किया है। भक्तिन की जिठानियां पुत्र
जन्म न होने के कारण अपने भात पर सफ़ेद राब रखकर गाढ़ा दूध डालतीं और अपने लड़कों को
औटते हुए दूध पर से मलाई उतार कर खिलाती। जबकि भक्तिन काले गुड़ की डली के साथ
कठौती में मट्ठा पाती और उसकी लड़कियां चने बाजरे की घुघरी चबाती। भक्तिन की बनाई
रोटी और दाल के बिम्ब को देखिये –
“
भक्तिन ने प्रसन्नता से
लबालब दृष्टि और आत्मतुष्टि से आप्लावित मुस्कराहट के साथ मेरी फूल की थाली में एक
अंगुल मोटी और गहरी चित्त्तीदार चार रोटियाँ रखकर उसे टेढ़ी कर गाढ़ी दाल परोस दी।”
यदि रेखाचित्र ‘भक्तिन’ के विभिन्न तत्त्वों का आकलन करें तो पाते हैं कि रेखाचित्र की वे
समस्त विशेषताएं इसमें मौजूद हैं जो एक श्रेष्ठ रेखाचित्र में अपेक्षित है। जैसा
कि पहले ही इस बात की चर्चा की गयी है कि रेखाचित्र का चरित्र पूरी तरह से लेखक का
परिचित और उससे सम्बद्ध होता है,
इसलिए उसके चरित्रों को
उभारते हुए उससे सम्बद्ध सेवा की अभिव्यक्ति भी लेखिका करती जाती है। भक्तिन में
भी लेखिका ने भक्तिन के साथ-साथ अपनी खुद की भी अभिव्यक्ति की है। आत्माभिव्यक्ति
की इस सत्य को स्वयं लेखिका ने भी स्वीकार किया है। भक्तिन में लेखिका की
आत्माभिव्यक्ति का एक उदहारण देखिए –
“ अपने भोजन के सम्बन्ध में
नितांत वीतराग होने पर भी मैं पाक विद्या के लिए परिवार में प्रख्यात हूँ और कोई
भी पाक-कुशल दूसरे के काम में नुक्ताचीनी किए बिना नहीं रह सकता।”
इसके साथ ही इस रेखाचित्र
में विचारों की मौलिकता एवं गहनता का भी सर्वत्र दर्शन होता है। छोटी से छोटी और
बड़ी से बड़ी बातों की भावाभिव्यक्ति में भी लेखिका ने जिस मौलिकता और गहनता का
परिचय दिया है वह अद्वितीय है। सेवक स्वामी सम्बन्ध के विषय में लेखिका बड़ी ही
सूक्ष्मता और सरलता के साथ अपना विचार व्यक्त करती हुई कहती है –
“
भक्तिन और मेरे बीच में
सेवक-स्वामी का सम्बन्ध है, यह कहना कठिन है; क्योंकि ऐसा कोई स्वामी नहीं हो सकता, जो इच्छा होने पर भी सेवक को अपनी सेवा से हटा न सके और ऐसा कोई सेवक
भी नहीं सुना गया, जो स्वामी से चले जाने का
आदेश पाकर अवज्ञा से हंस दे। भक्तिन को नौकर कहना उतना ही असंगत है जितना अपने घर
में बारी-बारी से आने-जाने वाले अँधेरे-उजाले और आँगन में फूलने वाले गुलाब और आम
को सेवक मानना। वे जिस प्रकार एक अस्तित्व रखते हैं, जिसे सार्थकता देने के लिए ही हमें सुख-दुःख देते हैं उसी प्रकार
इनका व्यक्तित्व अपने विकास के परिचय के लिए ही मेरे जीवन को घेरे हुए है।”
भक्तिन की बेटी के साथ घटी
घटना और कलयुग का दोष देकर उसकी अनचाही शादी की पंचायत के अन्यायपूर्ण फैसले के
प्रसंग को करुणापूर्ण ढंग से बड़ी ही रोचकता के साथ प्रस्तुत करते हुए लेखिका को
पूरे सामाजिक ताने-बाने को उभारने में पर्याप्त सफ़लता मिली है। ऐसे अनेक प्रसंग इस
और दूसरे रेखाचित्रों में मिल जाते हैं जहाँ महादेवी ने करुणामय रोचकता के साथ
सम्बंधित प्रसंग को पूरी मार्मिकता और संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया है। यथा-
“अंत में दूध का दूध और पानी
का पानी करने के लिए पंचायत बैठी और सबने सर हिलाकर इस समस्या का मूल कारण कलियुग
को स्वीकार किया। अपमानित बालिका ने ओठ काटकर लहू निकाल लिया और माँ ने आग्नेय
नेत्रों से गले पड़े दामाद को देखा।”
रेखाचित्रों के पात्र
वास्तविक जीवन से सम्बंधित होते हैं। जाहिर है उनके सम्बन्ध में दी गयी जानकारी
अथवा सूचना कल्पनात्मक होने के बजाय तथ्यों पर आधारित होती हैं। पात्रों ने अपने
जीवन में जो कुछ भोगा है, जिया है उसी का वर्णन विश्लेषण उन रचनाओं में होता
चला जाता है। चरित्र को उसकी जीवनस्थिति के यथार्थ के साथ प्रस्तुत करने की
प्रवृति रेखाचित्र की प्रमुख प्रवृति रही है। भक्तिन में भी रेखाचित्रकार महादेवी
वर्मा ने भक्तिन के जीवन-यथार्थ को उसकी प्रमाणिकता के साथ व्यंग्यात्मक एवं रोचक
ढंग से प्रस्तुत किया है। उसके गुण-अवगुण दोनों का बराबर वर्णन इस रचना में देखा
जा सकता है। उदहारण के लिए –
“
भक्तिन अच्छी है यह कहना
कठिन होगा क्योंकि उसमें दुर्गुणों का अभाव नहीं। वह सत्यवादी हरिश्चंद्र नहीं बन
सकती पर ‘नरो वा कुंजरो वा’ कहने में भी विश्वास नहीं करती।”
भक्तिन के जीवन में शुरू से
ही पीड़ा, अपमान, उपेक्षा, अवहेलना की स्थिति रही है। सामाजिक विषमता और शोषण का जो दृश्य समाज
में विद्यमान था, जिसका सामना भक्तिन को भी अपने जीवन में निरंतर
करना पड़ा, उन सबका बहुत ही मार्मिक ढंग से लेखिका ने चित्रण
किया है। भक्तिन के चरित्र की निर्मिति में इन मार्मिक पहलुओं का खासा महत्व एवं
योगदान रहा है। ऐसे-ऐसे मार्मिक प्रसंगों और दृश्यों की रचना की गयी है कि पाठक
सहज ही भक्तिन के प्रति सहानुभूति और संवेदना के भाव से ओत-प्रोत हो उठते हैं।
जैसे –
“
दुःख से शिथिल और अपमान से
जलती हुई वह उस घर में पानी भी बिना पिए उल्टे पैरों ससुराल लौट पड़ी। सास को
खरी-खोटी सुनाकर उसने विमाता पर आया हुआ क्रोध शांत किया और पति के ऊपर गहने
फेंक-फेंक कर उसने पिता के चिर विछोह की मर्मव्यथा व्यक्त की।”
प्रभावी वातावरण की सृष्टि
किसी भी रचना को सफल और जीवंत बनाता है। रेखाचित्र में भी प्रसंगानुकूल तथा
विषय-वस्तु के अनुरूप वातावरण की योजना अपेक्षित है।
महादेवी के रेखाचित्रों को इस दृष्टि से अत्यंत ही सफल कहा जा सकता है। भक्तिन में
भी महादेवी ने चौके, प्रवास, यात्रा, पंचायत जिस किसी भी प्रसंग का वर्णन किया है अत्यंत ही जीवंत ढंग से
वातावरण का निर्माण करने में वह सफल रही है। यथा –
“मुझे रात की निस्तब्धता में
अकेली न छोड़ने के विचार से कोने में दरी के आसन पर बैठकर बिजली के चकाचौंध से
आँखें मिचमिचाती हुई भक्तिन प्रशांत भाव से जागरण करती है।”
जहाँ तक महादेवी के रेखाचित्रों की या यूँ कहें कि भक्तिन की भाषा और
शैली का प्रश्न है तो यह अत्यंत सरल होते हुए भी सूक्ष्म है और विषयानुकूल एवं
परिस्थिति के अनुरूप है। कहीं-कहीं हास्य विनोद की झांकियां हैं तो कहीं कहीं
व्यंग्यभरी बातें भी चुभ जाती हैं। भक्तिन के चरित्र को उभारने के लिए उनकी अपनी
भाषा को ही प्रयोग में लाया गया है। जैसे भक्तिन अपनी बातों को पुष्ट करने के लिए
कहती है –
“हमार मालकिन ताऊ रात-दिन
किताबियाँ माँ गडी रहती हैं। अब हमहूँ पढ़े लगाब तो घर-गिरस्ती कउन देखी-सूनी।”
कहीं चिंतन प्रधान भाषा का
दर्शन होता है ‘प्रत्येक व्यक्ति को अपने
नाम का विरोधाभास लेकर जीना पड़ता है’ तो कहीं काव्यात्मक भाषा का ‘सेवक धर्म में हनुमान जी से स्पर्धा
करनेवाली भक्तिन किसी अंजना की पुत्री न होकर एक अनामधन्या गोपालिका की कन्या है
नाम है लछमिन।‘ यहीं नहीं इसमें लेखिका ने
यात्र तत्र या यूं कहें कि शुरू से लेकर अंत तक सर्वत्र व्यंग्यात्मक शैली
का भी सुन्दर उपयोग किया है’ ‘ पांच वर्ष की वय में उसे हंडिया ग्राम के एक संपन्न
गोपालक की सबसे छोटी पुत्रवधू बनाकर पिता ने शास्त्र से दो पग आगे रहने की ख्याति
कमाई और नौ वर्षीया युवती का गौना देकर विमाता ने बिना मांगे पराया धन लौटाने वाले
महाजन का पुण्य लूटा’।
ग्रामीण पृष्ठभूमि की
भक्तिन के चरित्र को उसके परिवेश में पूरी जीवन्तता के साथ प्रस्तुत करने के ध्येय
से लेखिका ने कई स्थलों पर उसकी अपनी लोकभाषा में ही उससे संवाद कहलवाने का कार्य
भी किया है जिससे उसका चरित्र और साकार हो उठा है। भक्तिन की दूसरी शादी के प्रयास
के प्रति उसके विरोध और विद्रोह को उसकी ही भाषा में बड़े ही सुन्दर ढंग से
प्रस्तुत किया गया है –
“हम कुकुरी-बिलारी न होय, हमार मन पुसाई तौ हम दूसरा के जाब नाहिं त तुम्हार पचै के छाती पै
होरहा भूँजब औ राज करब,
समुझे रहौ।”
यही नहीं भार ढोना, खरी-खोटी सुनाना,
लीक छोड़कर चलना, कान फुंकवाना, जैसे अनेकानेक मुहावरे और दूध का दूध पानी का पानी, मान न मान मैं तेरा मेहमान जैसे लोकोक्तियों के सटीक सार्थक प्रयोग
ने भाषा को और अधिक लोक-निकट लाकर खड़ा कर दिया है। भाषा के सुन्दर प्रयोग से भी यह
रचना अपने उत्कृष्ट रूप में सामने आयी है।
कुल मिलाकर भक्तिन के रूप
में महादेवी ने अपने आसपास के चरित्र को आधार बनाकर, ऐसे प्रसंगों और चरित्रों
की सृष्टि की है जिनकी साधारणता हमारा ध्यान नहीं खींच पाती किन्तु अपने लेखनी से
महादेवी ने उन साधारण चरित्रों में असाधारणता का न केवल संधान किया है बल्कि समाज
के शोषित पीड़ित तबकों को अपनी रचनाओं में नायकत्व और अमरता प्रदान की है। उनके इस
रचनात्मक प्रयासों से साहित्यिक समाज पर ऐसे पात्रों के वैशिष्ट्य को प्रभावपूर्ण
ढंग से प्रस्तुत करने की प्रेरणा मिली।
क्रियाकलाप
प्रश्नोत्तरी |
गृह कार्य –
पाठ से प्रश्नों का निर्माण |
शिक्षक का नाम –
पद –